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नागरीप्रचारिणी पत्रिका है, चिरकाल तक पारिलेयक में वास करना मालूम होता है, क्योंकि वहाँ भिक्षु आनंद से कहते हैं-'पायुष्मान आनंद ! भगवान् के मुख से धर्मोपदेश सुने बहुत दिन हुए।' संयुत्तनिकाय के बाद उदान का नंबर है, जहाँ झगड़े का जिक्र नहीं है, तो भी चिरकाल तक वहाँ रहना लिखा है। यद्यपि इन दोनों पुराने प्रमाणों में पारिलेयक से श्रावस्ती जाना नहीं लिखा है, तो भी पारिलेयक में अधिक समय का वास वर्षावास के विरुद्ध नहीं जाता। विनय और पीछे के दूसरे ग्रंथों में वर्णित जेतवन-गमन कोई विरुद्ध नहीं है, यद्यपि हाथी की सेवा की कथा संयुत्तनिकाय के बाद उदान के समय में गढ़ी गई मालुम होती है। अस्तु, पारिलेयक में वर्षा के बाद जेतवन में जाना निश्चित मालूम होता है। पारिलेयक का वर्षावास ऊपर की सूची में बोधि से दसवें वर्ष (५१८ ई० पू० ) में है। अतः इससे पूर्व ही जेतवन बना था। बोधि-प्राप्ति के समय तथागत की आयु ३५ वर्ष की थी। सं० निकाय में राजा प्रसेनजित् से संभवतः पहली मुलाकात होने का इस प्रकार वर्णन पाया है
"भगवान्...जेतवन में विहरते थे । राजा प्रसेनजित् कोसल... भगवान के पास जा सम्मोदन करके एक तरफ बैठ गया। ..फिर भगवान से कहा। आप गोतम भो-'हमने अनुत्तर सम्यक संबोधि को प्राप्त कर लिया' यह प्रतिज्ञा करते हैं ? जिसको महाराज ! अनु. त्तर सम्यग-संबुद्ध हुआ कहें. ठीक कहते हुए वह मुझे ही कहे।... हे गोतम ! जो भी संघी, गणी, गणाचार्य, ज्ञात, यशस्वी तीर्थकर, बहुत जनों के साधु-सम्मत,...जैसे-पूर्ण काश्यप, मंखलि गोसाल, निगंठनाथपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केसकंबल, वह भी पूछने पर 'अनुत्तर सम्यक संबोधि को जान गए', यह दावा नहीं करते। फिर क्या कहना है, पाप गौतम तो
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