SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जेतवन २८६ अग्निस्थान, बड़े के मध्य में...। (जंताघर में कीचड़ होता था इस लिये) ईट, पत्थर या लकड़ा से गच करना,...पानी का रास्ता बनाना,... जंताघर-पीठ..., ईट, पत्थर या लकड़ी के प्राकार से परिक्षेप करना...। जेतवन का जंताघर भी जेतवन के अगल-बगल एक कोने में रहा होगा, जो ऊपर वर्णन किए गए तरीके पर संभवत: ईट और लकड़ी से बना होगा। ऐसा स्थान जेतवन के पूर्व-दक्षिण कोण में संभव हो सकता है; अर्थात Monastery B के प्रासपास । प्रासनशाला, अंबलकाटक-जातकट्ठकथा में इसके लिये यह शब्द है "अंबलकोटक' प्रासनशाला में भात खानेवाले कुत्ते के संबंध में कहा। उस ( कुत्ते ) को जन्म से ही पनभरों ने लेकर वहाँ पाला था।" इससे हमें ये बातें मालूम होती हैं-(१) जेतवन में आसनशाला थो, (२) जिसके पास या जिसमें ही अंबलकोटक नाम की कोई कोठरी थो, (३) जिसमें पानी भरनेवाले अक्सर रहा करते थे; (४) पानीशाला या उदपानशाला भी यहीं पास में थी। यह स्थान भी गंधकुटो से कुछ हटकर हो होना चाहिए। पनभरों के संबंध से मालूम होता है, यह भी जंताघर(Monastery B) के पास ही कहीं पर रहा होगा। उपसंपदा मालक-"फिर उसको स्थविर ने जेतवन में ले आकर अपने हाथ से ही नहलाकर, मालक में खड़ा कर प्रव्रजित कर, उसकी लंगोटो और हल को मालक की सीमा ही में वृक्ष की डाल पर रखवा दिया।" (.)जातक, २४२। (२) ध० प०, २५:१०, अ. क. । १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy