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जेतवन
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करेरी
बुद्ध ही के रहने के लिये थी; ( २ ) उससे कुछ हटकर करेरिमंडलमाल था । बिल्कुल पास होने पर दिव्य श्रोत्र धातु से सुनने की कोई आवश्यकता न थी । अट्ठकथा से मालूम होता है कि इस ( ३ ) कुटी के द्वार पर का वृक्ष था, इसी लिये इसका नाम करेरिकुटिका पड़ा था । इतना ही नहीं, कोसंबकुटी का नाम भी द्वार पर कोसंब वृक्ष के होने से पड़ा था । ( ४ ) अनाथपिंडिक द्वारा यह करेरिकुटी लकड़ी के खंभों के ऊपर बहुत ही सुंदर बनाई गई थो । करेरिमंडलमाल पर टोका करते हुए बुद्धघोष कहते हैं- " उसी करेरिमंडप' के प्रविदूर ( = बहुत दूर नहीं) बनी हुई निसीदनशाला ( को करेरिमंडलमाल कहते हैं ); वह करंरिमंडप गंधकुटो और निसीदनशाला के बीच में था । इसी लिये गंधकुटी भी करेरिकुटिका, और शाला भी करेरिमंडलमाल कहा जाता था । " उदान में भी - 'एक बार बहुत से भिक्षु करेरिमंडलमाल में इकट्ठे बैठे थे' देखा जाता है । टीका करते हुए अट्ठकथा में प्राचार्य धर्मपाल लिखते हैं — " करंरि वरुण वृक्ष का नाम है । वह गंधकुटी, मंडप और शाला के बीच में था । इसी लिये गंधकुटी भी करेरिकुटी कही जाती थी, मंडप भी, और शाला भी करेरिमंडलमाल । प्रतिवर्ष बननेवाले घास पत्ती के छप्पर को मंडल-माल कहते हैं । दूसरं कहते हैं, अतिमुक्त आदि लताओं
के मंडप को मंडलमाल कहते हैं ।
यहाँ दी० नि० अट्ठकथा में 'करेरिमंडप, गंधकुटी और निसीदनशाला के बीच में था ' उदान अट्ठकथा में 'करेरि वृक्ष
( १ ) पीछे दीघ० नि० अ० क० ।
( २ ) ( उदान - ३ | ८ ) - करेरिमंडलमाले सन्निसिन्नानं सनिपतितानं श्रयं अंतराकथा उदपादि ।
(३) उदान टुकथा, पृ० १३५ ।
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