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जेतवन
२७५ घने कीचड़ में घुसकर लेटे हुए मच्छ-कच्छपों को कौए चील आदि अपनी चोचों से मार मार, ले जाकर, फड़फड़ाते हुओं को खाते थे। शास्ता ने मत्स्य-कच्छपों के उस दुःख को देखकर, महती करुणा से प्रेरित हो, निश्चय किया-ग्राज मुझे पानी बरसाना है।...भोजन के बाद सावत्थी से विहार को जाते हुए जेतवन-पुष्करिणी के सेोपान पर खड़े हो आनंद स्थविर से कहा--आनंद, नहाने की धोती ला; जेतवन-पुष्करिणो में स्नान करेंगे।...शास्ता एक छार से नहाने की धोती को पहनकर और दूसरे छोर से सिर को ढककर सोपान पर खड़े हुए।...पूर्वदिशा-भाग में एक छोटी सी घटा ने उठकर...बरसते हुए सारे कोसल राष्ट्र को बाढ़ जैसा बना दिया। शास्ता ने पुष्करिणो में स्नान कर, लाल दुपट्टा पहिन......... ।
यहाँ हमें मालूम होता है कि (१) पुष्करिणी जेतवन-द्वार के पास ही थी, (२) उसमें घाट बँधा हुआ था।
इस पुष्करिणी के पास वह स्थान था, जहाँ पर देवदत्त का जीते जी पृथिवी में समाना कहा गया है। फाहियान और ह्य न्-चाङ दोनों ही देवदत्त को जेतवन में तथागत पर विष-प्रयोग करने के लिये आया हुआ कहते हैं, किंतु धम्मपद अकया को वर्णन दृसग ही है
देवदत्त ने, नौ मास बीमार रहकर अंतिम समय शास्ता के दर्शन के लिये उत्सुक हो, अपने श्रावकों से कहा-मैं शास्ता का दर्शन करना चाहता हूँ; मुझे दर्शन करवाओ। ऐसा कहने पर-समर्थ होने पर तुमने शास्ता के साथ वैरी का आचरण किया, हम तुम्हें वहाँ न ले जायँगे। तब देवदत्त ने कहा-मेरा नाश मत करो। मैंने शास्ता के साथ आघात किया, किंतु मेरे ऊपर शास्ता का केशाप्रमात्र
(1) ध० ५० ५। १२ । अ० के० ७१, ७५ (Commentary Vol. I, p. 147.) देवदत्तवत्थु । देखो दी• नि० सुत्त २ की अट्ठकथा भी।
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