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हिंदो काव्य में निर्गुण संप्रदाय
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सेन आदि नीच जाति के भक्तों का नाम सुनते ही हृदय में श्रद्धा उमड़ पड़ती है । हमारी श्रद्धा की इस पात्रता की सच्ची परख हमारी क्रूरता हुई । बाधाओं को कुचलकर शूद्र प्राध्यात्मिक जगत् ऊपर ਚਠੇ I समाज की ओर से तो उनके लिये यह मार्ग
में
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भी बंद था ।
शूद्रों की तपस्या ने धीरे धीरे परिस्थिति को बदलना प्रारंभ कर दिया । तामिल भूमि में तो मुसलमानों के आने के पहले ही शैव संत कवियों तथा वैष्णव आळवारों को 'यो नः पिता जनिता विधाता' के वैदिक आदर्श की सत्यता की अनुभूति हो गई थी । जब सब का पिता एक परमात्मा है जो न्यायकर्ता है, तब ऊँच-नीच के लिये जगह ही कहाँ हो सकती है । उनकी धर्मनिष्ठाजन्य साम्यभावना के कारण यह बात उनकी समझ में न आती थी । एक पिता के पुत्रों में प्रेम और समानता का व्यवहार होना चाहिए न कि घृणा और असमानता का । अतएव वे सामाजिक भावना में वह परिवर्तन देखने के लिये उत्सुक हो उठे, जिससे परस्पर न्याय करने की अभिरुचि हो, सौहार्द बढ़े और ऊँच-नीच का भेद-भाव मिट जाय । तिरु मुलर (१० वीं शताब्दी ) ने घोषणा की कि समस्त दूसरा वर्ण नहीं और एक के सिवा नम्मावार ने कहा, वर्ण किसी को सकता; जिसे परमात्मा का ज्ञान है, वही नीच २ । शैव भक्त पट्टाकिरियर की कि अपने ही भाइयों का यहाँ के लोग वेंगे। वह यही मनाता रहा कि कब
मानव समाज में एक के सिवा दूसरा परमात्मा भी नहीं' । ऊँचा प्रथवा नीचा नहीं बना वही उच्च है और जिसे नहीं, यही प्रांतरिक कामना थी नीच समझने से कब बाज
( १ ) 'सिद्धांतदीपिका' ११, १० ( अप्रैल १६११ ) पृ० ४३३; कार्पेटर - 'थीज्म इन मेडीवल इंडिया', पृ० ३६६.
( २ ) "तामिल स्टडीज़, पृ० ३२७; कार्पेटर थीज्म, पृ० ३८२.
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