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नागरीप्रचारिणी पत्रिका की धारा बराबर बीसवीं शताब्दी तक बहती चली आई है। ये कहानियाँ एक प्रकार से अन्योक्तियाँ हैं जिनमें लौकिक प्रेम ईश्वरोन्मुख प्रेम का प्रतीक है। इनको पढ़ने से मालूम होता है, जैसे इनके मुसलमान लेखक हिंदुओं के जीवन सिद्धांतों का उपदेश कर रहे हो। प्रादि मुस्लिम काल की इन कहानियों में भी हिंदू जीवन की बारीक से बारीक बातें बड़े ठिकाने से चित्रित हैं, जिससे पता चलता है कि इनके सूफी लेखक हिंदू समाज तथा हिदू साधुओं से घनिष्ठ मेलजोल रखते थे। इससे यह भी पता चलता है कि उनके हृदय में हिंदुओं के प्रति कितनी सहानुभूति थी। इससे स्वभावतः हिंदुओं में भी उनके प्रति श्रद्धा और आदर का भाव उदित हुआ होगा। हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान् पं० रामचंद्र शुक्ल का अनुभव है कि जिन जिन परिवारों में पदमावत की पोथी पाई गई वे हिंदुओं के प्रविरोधी, सहिष्णु और उदार पाए गए। इस प्रकार दोनों जातियों के साधुओं के कतृत्व से एक ऐसी भूमि का निर्माण हो रहा था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों प्रेम-पूर्वक मिल सकते ।
आपत्काल में भगवान की शरण में जाकर हिंदू किस प्रकार हार्दिक शांति प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे, यह हम देख चुके
हैं। शूद्र को भगवान् की शरण में जाने का ७. शुद्धोद्धार
" द्विगुण कारण विद्यमान था। उस पर दुगुना प्रत्याचार होता था। हिंदू होने के कारण मुसलमान उसके ऊपर अत्याचार करता था और शूद्र होने के कारण उसी का सधर्मी उच्च जाति का हिंदू । अतएव परमात्मा की शरण में जाने के लिये उसकी प्राकुलता का पारावार न रहा ।
मध्यकालीन भारत के धार्मिक इतिहास के पन्ने शूद्र भक्तों के नामों से भरे हैं, जिनका प्राज भी ऊँच-नीच सब बड़े मादर के साथ स्मरण करते हैं। शगोप ( नम्माळवार), नामदेव, रैदास,
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