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जेतवन
२७१ चाहते थे, तो बुद्धासन से उठकर स्नानकोष्ठक में जाकर, रखे जल से शरीर को ऋतु-ग्रहण कराते थे । उपट्ठाक भो बुद्धासन ले आकर गंधकुटी-परिवेण में रख देता था। भगवान् लाल दुपट्टा पहनकर कायबंधन बाँधकर, उत्तरासंग एक कंधा (खुला रख) पहनकर वहाँ आकर बैठते थे; अकेले कुछ काल ध्यानावस्थित होते थे। तब भितु जहाँतहाँसे भगवान् के उपस्थान के लिये आते थे। वहाँ कोई प्रश्न पूछते थे, कोई कर्म स्थान; कोई धर्मोपदेश सुनना चाहते थे। भगवान्, उनके मनोरथ को पूरा करते हुए, पहले याम को समाप्त करते थे।"
बुद्धासन-स्तूप-गंधकुटो का परिवेण इस तरह एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। जेतवन में, गंधकुटी में, रहते हुए भगवान् यहीं पासीन हो प्रायः नित्य ही एक याम उपदेश देते थे, वंदना ग्रहण करते थे। इस तरह गंधकुटी-परिवेण की पवित्रता अधिक मानी जानी स्वाभाविक है। उसमें उस स्थान का माहात्म्य, जहाँ तथागत का आसन रखा जाता था, और भी महत्त्वपूर्ण है
और ऐसे स्थान पर परवर्ती काल में कोई स्मृति-चिह्न अवश्य ही बना होगा। जेतवन की खुदाई में स्तूप No. H ऐसा ही एक स्थान मिला है। इसके बारे में सर जान मार्शल लिखते हैंOf the stupas H, J and K, the first-mentioned seems to have been invested with particular sanctity; for not only was it rebuilt several times, but it is set immediatery in front of temple No. 2, wbich there is good reason to identify with the famous Gandbakuti, and right in the midst of the main road which approaches this sanctuary from the east... this plinth is constructed of bricks of same size as those monasteries ( of Kushan Period ).
(१) Archeological Survey of India, 1910-11, p. 9.
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