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नागरीप्रचारिणी पत्रिका द्वार पर रहने से इस नाम का घर ।" दीघनिकाय की अट्रकथा के अनुसार "सलल घर राजा प्रसेनजित् का बनवाया हुआ था ।"
(१) संयुत्त और दीघ दोनों निकायों ही में सललागार के साथ जेतवन का नाम न आकर, सिर्फ श्रावस्तो का नाम प्राना बतलाता है कि सललागार जेतवन से बाहर था । (२) सललागार का अटकथा में सललघर हो जाना मामूली बात है । (३) (क) सलल घर राजा प्रसेनजित् का बनवाया था; (ख) जो यदि जेतवन में नहीं था तो कम से कम जेतवन के बहुत ही समीप था, जिससे अट्ठकथा की परंपरा के समय वह जेतान के अंतर्गत समझा जाने लगा।
हम ऐसे स्थान राजकाराम को बतला चुके हैं, जो आज भी देखने में जेतवन से बाहर नहीं जान पड़ता। इस प्रकार सलला. गार राजकाराम ( Mo. No. 19 ) का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। श्रावस्ती के भीतर भिक्षुणियों का प्राराम भी, राजा प्रसेनजित् का बनवाया होने के कारण, राजकाराम' कहा जाता था; इसी लिये यह सललागार या सललघर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
गंधकुटी-जेतवन के भीतर की अन्य इमारतों पर विवार करने से, जेतवन के पूर्व, गंधकुटी का जानना आवश्यक है; क्योकि इसे जान लेने से और स्थानों के जानने में आसानी होगी। वैसे तो सारा जेतवन ही 'अविजहितद्वान' माना गया है, किंतु जेतवन में गंधकुटी' की चारपाई के चारों पैरों के स्थान 'अविजहित' हैं, अर्थात् सभी अतीत और अनागत बुद्ध इसको नहीं छोड़ते । कुटो का द्वार किस दिशा को था, इसके लिये कोई प्रमाण हमें नहीं मिला । तो भी पूर्व दिशा की विशेषता को देखते हुए पूर्व मुँह होना ही अधिक संभव प्रतीत होता है। जहाँ इस विषय पर
(.) "जेतवने गंधकुटिया चत्तारि मंचबादट्ठानावि अविजहितानेव होन्ति ।"-दी०नि०, महापदान सुत्त, १४, अ. क. ।
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