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________________ जेतवन २६५ प्रसेनजित् द्वारा बनवाए जाने के कारण इसका नाम राजकाराम पड़ा था । बोधि के पहले भाग ( ५२७-१३ ई० पू० ) में भगवान् के महान लाभ-सत्कार को देखकर तैर्थिक लोगों ने सोचा, इतनी पूजा शील-समाधि के कारण नहीं है वरन यह इसी भूमि का माहात्म्य है । यदि हम भी जेतवन के पास अपना आराम बना सकें तो हमें भी लाभ - सत्कार प्राप्त होगा । उन्होंने अपने सेवकों से कहकर एक लाख कार्षापण इकट्ठा किया । फिर राजा को घूस देकर जेतवन के पास तीर्थिकाराम बनवाने की आज्ञा ले ली। उन्होंने जाकर, खंभे खड़े करते हुए, हल्ला करना शुरू किया । शास्ता ने गंधकुटी से निकलकर बाहर के चबूतरे पर खड़े हो प्रानंद से पूछा- ये कौन हैं आनंद ! मानो केवट मछली मार रहे हों । प्रानंद ने कहा— तीर्थिक जेतवन के पास में तीर्थिकाराम बना रहे हैं । आनंद ! ये शासन के विरोधी भिक्षु संघ के विहार में गड़बड़ डालेंगे | राजा से कहकर हटा दो । प्रानंद भिक्षु संघ के साथ राजा के पास पहुँचे । घूस खाने के कारण राजा बाहर न निकला । फिर शास्ता ने सारिपुत्त मोग्गलान को भेजा । राजा उनके भी सामने न प्राया । दूसरे दिन बुद्ध स्वयं भिक्षु संघ सहित पहुँचे । भोजन के बाद उपदेश दिया और अंत में कहा -- महाराज ! प्रव्रजितों को आपस में लड़ाना अच्छा नहीं है । राजा ने आदमियों को भेजकर वहाँ से तीर्थिकों को निकाल दिया और यह सोचा कि मेरा बनवाया कोई विहार नहीं है, इसलिये इसी स्थान पर विहार बनवाऊँ । इस प्रकार धन वापिस किए बिना ही वहाँ विहार बनवाया । जातक कथा ( निदान) में भी यह कथा आई है, जहाँ से हमें कुछ और बातें भी मालूम होती हैं । तीर्थों ने जंबूद्वीप के सर्वोत्तम स्थान पर बसना ही श्रमण गौतम के लाभ-सत्कार का कारण समझा और जेतवन के पीछे की ओर तीर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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