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नागरीप्रचारिणी पत्रिका में इसे चार 'अविजहित' स्थानों में रखा है। जो हो, बुद्ध के सबसे अधिक उपदेश जेतवन में हुए हैं। मज्झिमनिकाय के डेढ़ सौ सुत्तों में ६५ जेतवन ही में कहे गए; संयुत्त और अंगुत्तर निकाय में तो तीन चतुर्थाश से भी अधिक सुत्त जेतवन में हो कहे गए हैं। भिक्षुओं के शिक्षापदों में भी अधिकतर श्रावस्ती-जेतवन में ही दिए गए हैं। विनयपिटक के 'परिवार ने नगरों के हिसाब से उनकी सूचो इस प्रकार दो है
कतमेसु सत्तसु नगरेसु पञ्जता ।
........ ... .................. दस वेसालियं पञत्ता, एकवीस राजगहे कता । छ-ऊन-तीनि सतानि, सब्बे सावत्थियं कता ॥ छ भालवियं पञ्जत्ता, अट्ठ कोसंविय कता । अट्र सक्कसु वुच्चन्ति, तयो भग्गेसु पम्जत्ता॥
-परिवार, गाथासंगणिक । अर्थात् साढ़े तीन सौ शिक्षापदों में २६४ श्रावस्ता में ही दिए गए। और परीक्षण करने पर इनमें से थोड़े से ही पूर्वाराम में और बाकी सभी जेतवन ही में दिए गए। इसलिये जेतवन' का खास स्थान होना ही चाहिए।
विनयपिटक के चुल्लवग्ग में जेतवन के बनाए जाने काइतिहास दिया गया है। विनयपिटक की पाँच पुस्तके हैं--पाराजिक, पाचित्ति, महावम्ग, चुल्लवग्ग और परिवार। इनमें से परिवार तो पहले चारों का सरल संग्रह है। संग्रह-समाप्ति ईसा के प्रथम या द्वितीय शताब्दी में हुई जान पड़ती है। किंतु बाकी चार उससे पुराने हैं। इनमें भी महावग्ग और चुल्लवग्ग, जिन्हें इकट्ठा 'खंधक' भी कहते
(१) इदंहि तं जेतवनं इसिसंघनिसेवित। श्राउट्ट धम्मराजेन पीतिसंजननं मम ॥
-सं०नि०, १:१८, २:२:१०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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