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हुमायूँ के विरुद्ध षड्यंत्र
२४५ हुमायूँ को ही बुला भेजा। इसके दो कारण मालूम होते हैंप्रथम तो यह कि महँदी ख्वाजा घमंडी व्यक्ति था। यह समझकर कि अब मैं आगरा प्रांत का भी अध्यक्ष हो जाऊँगा, उसके घमंड का और भी ठिकाना न रहारे । निस्संदेह ऐसा होने से राज-कर्मचारियों में तो वह थोड़े दिनों के लिये अवश्य सर्वोपरि हो जाता। कितने ही चापलूस उसके यहाँ हाजिरी देने लगे३ । सच कहा है-"प्रभुता पाइ काहि मद नाही"। भावी प्रभुत्व की माशा ने ही महँदी ख्वाजा के मिजाज सातवें आसमान पर चढ़ा दिए और वह अपने शुभाकांक्षी मीर खलीफा को ही, अपनी थोड़े दिनों की सूबेदारी में, समाप्त कर देने का विचार करने लगा । दूसरे बाबर तथा मीर खलीफा ने अवश्य ही इस शासन-संबंधी भावी प्रबंध को गुप्त रखा होगा। महँदी ख्वाजा का आदर दरबार में अवश्य ही अधिक होने लगा। मीर खलीफा और महँदी ख्वाजा की घनिष्ठ मित्रता भी थी। इन दोनों बातों का प्रभाव जनता तथा राज-कर्मचारियों पर पड़ना स्वाभाविक ही था। बीसवीं शताब्दी के पाठक इस बात को भली भांति जानते होंगे कि शासन-संबंधी गुप्त समस्याओं की आलोचना जन-समुदाय में किस प्रकार होने लगती है। इसी प्रकार इस समस्या के भी जोड़ में तोड़ भिड़ाए जाने लगे, क्योंकि बाबर के बदख्शाँ जाने का विचार तो जनता को विदित था। अतः जनता के मस्तिष्क में एक संबंध में उसका नाम तक नहीं लेता। यह तो ऐसी कोई समस्या के न उठने का ही द्योतक है।
(.) तबकाते-अकबरी, एलियट, जि० ५, पृष्ठ १८८ । (२) वही, (३) वही, (४) वही, (५) वही,
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