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नागरीप्रचारिणी पत्रिका निजामुद्दीन अहमद बख्शी ने तीसरे मत का प्रतिपादन किया है। उसकी विचार-धारा के दो भाग हैं—प्रथम तो यह कि मीर खलीफा को हुमायूँ की ओर से शंकाएँ थीं और वह उसके सिंहासनस्थ होने के पक्ष में न था। परंतु वह उसी से असंतुष्ट न था, वरन् हुमायूँ के छोटे भाइयों के भी उत्तराधिकारी होने के पक्ष में न था। इससे स्पष्ट है कि यह हुमायूँ तथा मीर खलीफा के व्यक्तिगत झगड़ों का ही हानिकारक परिणाम न था वरन् इसका कुछ राजनीति से भी संबंध था।
दूसरे यह कि मेरा पिता वहीं खड़ा रहा। महँदी ख्वाजा ने, मेरे पिता को भी मीर खलीफा के साथ लौट गया जान, दाढ़ी पर ताव देकर कहा-“ईश्वर ने चाहा तो तुझे (मीर खलीफा को) भी भून डालूंगा।" मेरा पिता तुरंत मीर खलीफा के पास पाया और उसने सब बात कह सुनाई । उसने कहा कि हुमायूँ तथा उसके भाइयों के ऐसे राजकुमारों के होते हुए तुम्हें क्या हो गया है जो तुमने सिंहासन किसी दूसरे वंश के राजा को देने की ठान ली है । ( इन बातों का समर्थन अबुलफजल ने भी किया है )...मीर खलीफा ने तुरंत हुमायूँ को बुला भेजा।
इन अवतरणों के आधार पर यूरोपीय तथा भारतीय इतिहासविशेषज्ञों ने एकमत से कहा है कि प्रागरा में प्रधान मंत्री के नेतृत्व में एक षड्यंत्र का निर्माण, हुमायूँ को सिंहासन-च्युत करने के अभिप्राय से, किया गया। कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि
(१) तबकाते-अकबरी, बिल्लियोथिका इंडिका, प्रकाशक एशियाटिक सोसाइटी, फारसी मूग, पृष्ठ २८ ।
راضی نباشد به پسرن خورد
هرگاه بسلطنت پسر بزرگ
-dawlhi siril xs
(२) वही, पृष्ठ २६ ।
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