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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
साठगुनी सेस ते सहस्रगुनी खापन ते,
लाखगुनी लूक ते करोरगुनी काली ते ॥
पद्माकरजी ने अनेक संस्कृत छंदों के अनुवाद भी किए हैं, किंतु उनमें भी उनकी प्रतिभा की छाप लगी हुई है । उनसे भी उनका यथेष्ट पांडित्य प्रकट होता है
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तोरसारमपहृत्य
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शंकया स्वीकृतं यदि पलायनं त्वया । मानसे मम नितान्ततामसे नन्दनन्दन कथं न लीयसे ॥ ए ब्रजचंद गोविंद गोपाल सुना किन केते कलाम किये मैं । त्यों 'पदमाकर' आनँद के नद हौ नंदनंदन जान लिये मैं ॥ माखन चोरि के खारिन है चले भाजि कछू भय मानि जिये मैं दूरिहु दौरि दुरथो जो चहा तो दुरौ किन मेरे अँधेरे हिये मैं ॥ हे कृष्ण ! तुम मक्खन चुराकर भय के कारण गलियों में भाग रहे हो ? अच्छा, यदि तुमको कहीं दूर जाकर छिपना ही है जहाँ से तुम्हें कोई ढूँढ़ न सके तो क्यों नहीं मेरे अंधकार - परिपूर्ण हृदय- गह्वर में आकर छिप रहते ! यहाँ पर तुम्हें कोई पकड़ नहीं सकता । तुम ब्रजचंद हो, अतः मेरा हृदय प्रकाशमान हो जायगा । तुम गोविंद हो, अत: तुमसे मेरे हृदय की बात अज्ञात नहीं । वह कैसा है इसे तुम भली भाँति जानते हो। तुम गोपाल हो अतः मेरे हृदय का, जो एक गो ( इंद्रिय) है, परिपालन करोगे ! ब्रजचंद, गोविंद तथा गोपाल इन तीन संबोधनों द्वारा पद्माकर ने जिन सूक्ष्म तत्त्वों की ओर संकेत किया है, संस्कृत श्लोक में उनका कहीं पता भी नहीं है । इस दृष्टि से संस्कृत की अपेक्षा हिंदी का सवैया उत्कृष्ट हो गया है। इसी प्रकार उनके अधिकांश अन्य अनुवादों में उनकी विशेषता की छाप लगी हुई है ।
इस प्रकार पद्माकर के भावों की परीक्षा करके देखा जाता है कि उनका भांडार यद्यपि छोटा है किंतु उसमें जो कुछ है उसका
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