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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
शंकर अब तो पार लगाय, तेरी मार सही बहुतेरी ॥
- शंकर
काशीप्रसादजी की विपत्ति में उनकी सिंधु सुता ही अंतिम आधार हैं, गिरिधर और देवीसहायजी के काव्य में अपने इष्टदेव के प्रति कातर प्रार्थना है । शंकरजी का काव्य सादगी से दूर है, उसमें आध्यात्मिक भावना के साथ पूर्ण रूपक अलंकार का निर्वाह किया गया है और पद्माकरजी के काव्य में उनके रघुरैया उनके अंतिम आधार हैं, उनके प्रति यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से नहीं किंतु परोक्ष रूप से कातर प्रार्थना भी है और सबसे बढ़कर है प्राध्यात्मिक भावावेश के साथ अपने इष्टदेव की शक्ति और उदारता में अटल विश्वास । ऐसा विश्वास ढूँढ़ने पर ही किसी भक्त की वाणी में मिल सकेगा । उनकी वर्णन शैली में प्रवाह और भावलीनता पिछले किसी भी छंद से कहीं अधिक है । शैली में प्रवाह और भावलीनता पद्माकर के काव्य का प्रधान गुण है । इस काव्य में तूफान के मूर्तिमान् चित्रण को देखकर जेम्स टामसन के Storm की कुछ पंक्तियाँ अपने पूर्ण वेग से सम्मुख आ जाती हैं ।
Meantime the mountain-billows to the cloud In dreadful tumult swell'd surge above surge Burst into chaos with tremendous roar. And anchor'd navies from their stations drive Wild as the winds across the howling waste Of mighty waters! now the inflated wave Straining they scale, and now impetuous shoot. Into the secret chambers of the deep, The wintery Baltic thundering o'er their head Emerging thence again, before the breath
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