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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
व्याधहू
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बिद साधु । अजामिल ते, ग्राह ते गुनाही कह। तिनमें गिनाओगे स्यौरी हौं न सूद्र हैं। न केवट कहूँ को त्यों न, गौतमीतिया हैं। जापै पग धरि श्राश्रोगे ॥ राम सों कहत 'पदमाकर' पुकारि तुम, मेरे महापापन को पारहू न पाओगे । सीतासी सती को ज्यो झूठोई कलंक सुनि,
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साचो हूँ कलंकी ताहि कैसे अपनाओगे ? अपने को पापी से भी पापी बताकर उद्धार की प्रार्थना प्राय: सभी भक्तों ने की है । परंतु अपने इष्टदेव राम के सोता-त्याग पर जैसी मीठो चुटकी पद्माकर ने ली है वैसो आज तक किसी के काव्य में देखने को न मिली । व्यंग चाहे जैसा भी उन्होंने क्यों न किया हो पर अपने इष्टदेव की उदारता में उन्हें पूर्ण विश्वास था । प्र के पयोनिधि लौं लहरें उठन लागीं,
लहरा लग्यो त्यों होन पौन पुरवैया को । भीर भरी झाँझरी विलोकि मँझधार परी,
धीर न धरात 'पदमाकर' खेवैया को ॥ कहा वार कहा पार जानी न जात कछू,
दूसरा दिखात न रखैया और नैया को । बहन न पैसे घेरि घाटहि लगे है ऐसे,
श्रमित भरोसा मोहि मेरे रघुरैया को ॥
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तूफान में पड़ी नाव के डूबने-उतराने के इस रूपक को अनेक भक्त कवियों ने अपने काव्य में चित्रित किया है जिनमें से चार यहाँ पर दिए जाते हैं ।
पार कैसे को जैहै री नदिया श्रगम अपार ।
गहिरी नदिया नाव पुरानी खेवनहार गँवार ||
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