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________________ पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २३१ मुख-मंडल को देखता हूँ, तुम्हें देखता हूँ, तुम्हें सुनता हूँ और तुम्हारे हो आलिंगन का अनुभव करता हूँ। उक्त सभी काव्यों में प्रेमी और प्रेमिका के ऐक्य-संबंध को प्रदर्शित किया गया है। देव का काव्य संयत और तर्क-युक्त हुप्रा है; मतिराम के काव्य में तर्क की अपेक्षा प्रेम का प्राधिक्य है; रवींद्रनाथ की पंक्तियों में प्रेम की तल्लीनता और आध्यात्मिकता का आवेश है और लार्ड लिटन के छंदों में भावानुभूति की तीव्रता है। किंतु पद्माकर के काव्य में जो तीव्र संवेदना, तन्मयता या भावलीनता पाई जाती है, वह उक्त किसी काव्य में नहीं है। शृंगार-काव्य की सफलता के पश्चात् पद्माकर का भक्तिकाव्य सार्थक हुआ है। यौवन के आवेश में तथा राजाओं को रिझाने के उद्देश्य से उन्होंने शृंगारात्मक काव्य की रचना की थी। किंतु अवस्था ढलने पर 'पेट की चपेट और लोभ की लपेट' में दर दर भटक चुकने पर रोग-ग्रस्त अवस्था में जब उन्हें कहीं विश्राम का धाम न मिला तो राम-नाम के रसायन द्वारा उन्होंने अपने तन-मन और वाणी को पवित्र किया। इस अवस्था की पद्माकर की रचनाएँ मार्जित और प्रौढ़-विचार-संपन्न हुई हैं। भक्ति-काव्य में अपने उपास्य के प्रति कवि का जैसा अटल विश्वास पाया जाता है वैसा कुछ चुने चुनाए भक्तों की वाणी में हो मिल सकता है। पद्माकर के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उन्होंने जिस प्रकार की भी कविता की है उसमें तल्लीन हो गए हैं। उनके जैसी तल्लीनता हिंदो के बहुत कम कवियों में पाई जाती है। ___ पद्माकरजी अपने पातकों को बहुत बड़ा समझते थे इसी से उन्होंने लिखा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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