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नागरीप्रचारिणो पत्रिका
तोष तथा बिहारी दोनों की नायिकाओं की अंतर्व्यथा पद्माकर की नायिका की अपेक्षा अधिक खुल गई है। वे कुल संकोच की अपेक्षा प्रियतम प्रेम की ओर ही अधिक प्राकृष्ट प्रतीत होती हैं । तोष की नायिका की आत्मा कवि की अतिरिक्त कला में पड़कर इतनी निर्बल हो गई है कि वह अपनी दुरवस्था के प्रति हमारी सहानुभूति प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ है। बिहारी की नायिका का अधैर्य, नई लगन के होते हुए भी, अनंत प्रेम का परिचायक है । तेोष की अपेक्षा उनका वर्णन भी स्वाभाविक है। किंतु पद्माकर की अनुभूति भारतीय लोक-मर्यादा के अनुकूल बड़ो विदग्धतापूर्ण हुई है । पद्माकर की ऐसी ही काव्य-सूक्तियों को देखकर कहना पड़ता है कि वे जीवन की प्राकृतिक व्याख्या ( Naturalistic interpretation of life ) में बहुत ही प्रवीण हैं
प्रानन के प्यारे तन-ताप के हरनहारे,
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नंद के दुलारे ब्रजवारे उमहत हैं । कहै 'पदमाकर' उरुके उर अंतर यों,
अंतर चहूँ ते न अंतर चहत हैं ।। नैनन बसे हैं अंग अंग हुलसे हैं,
रोम रोमन रसे हैंनिकसे हैं को कहते हैं । ऊधो वे गोविंद कोऊ और मथुरा में रहे,
मेरे तो गोविंद मोहि मोहि में रहत हैं ॥ प्रेम और विरह की वह अवस्था जिसमें प्राणी अपने और अपने प्रेमी के अंतर को भूल जाता है—वह न केवल अपने ही रोम रोम में वरन सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में अपने ही प्रेम पात्र की मनोहर मूर्ति का दर्शन करता है और उसी में तन्मय हो जाता है— बड़ी ही तृप्तिकर होती है । उस समय विरह अथवा प्रेम-वृष्णा की अनंत ज्वाला से शांति का एक ऐसा सुधा-स्रोत उत्पन्न होता है जिसमें
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