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पद्माकर के काव्य को कुछ विशेषताएँ कौपि कदली लैंौं या श्राली की अवलंब कहू,
चाहत ब्रह्यौ पै लोकलाजन लहै नहीं । कंत न मिलै को दुख दारुन अनंत पाय, area कहयौ पै कछु काहू से कहै नहीं ॥
एक ओर लोकलना दूसरी ओर विरह वेदना, दोनों के शासन में पड़कर अबला बाला का बुरा हाल है । हृदय रो रहा है पर उसे प्रकट करने में लज्जा बाधक है । संभवतः उसकी उस अंतर्व्यथा से सहानुभूति प्रकट करनेवाला भी कोई नहीं है । वह अपने आँसुओ का घूँट आप ही पोकर रह जाती है, कितनी दयनीय अवस्था है
"इक मीन बिचारो बिध्या बनली पुनि जाल के जाय दुभाले परथो । मन तो मनमोहन के सँग गो तन लाज मनोज के पाले परयो ||
ऐसे कुसमय में टेनिसन की मेरीना के समान उसका यह सोचना ही स्वाभाविक होगा
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My life is dreary
He cometh not......
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I am aweary aweary
I would that I were dead.
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तोष तथा बिहारी ने भी अपने मुक्तकों में कुछ ऐसी ही अवस्था का वर्णन किया है ।
प्रीतम को हित पोन गहि, लिए जाति तेहि संग ।
गहि डोरी कुल-लाज की, भई चंग के रंग ॥ तोषविधि |
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नई लगन कुल की सकुच बिकल भई अकुलाय |
दुहूँ और ऐंची फिरे फिरकी लौं दिन जाय ॥ - बिहारी ।
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