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नागरीप्रचारिणो पत्रिका
ग्रहण करने से
विप्रलंभ शृंगार
समर्थित 'दिया-बाती सी' नागरी की देह का अर्थ काव्य- लिंग अलंकार होता है जिसके साहचर्य से का जैसा सुंदर विकास हुआ है, वह सर्वथा प्रशंसनीय है । छेकानुप्रास का उल्लेख व्यर्थ होगा, क्योंकि वह पद्माकर के काव्य में सर्वत्र व्यापक है और वे उसके मास्टर हैं 1
इस विरह-वर्णन में नागरी की उपमा दिया-बाती से बहुत ही उत्तम बन पड़ी है। दीये की बत्ती जिस प्रकार आप ही आप धीरे धीरे जलकर नष्ट हो जाती है, विरही प्राणी का शरीर भी उसी प्रकार विरह-वह्नि में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है । आत्माहुति की प्रवृत्ति या Self consuming zeal का होना ही सच्चे विरह का स्वरूप है 1 इसी से कोई प्रेमी प्रार्थना करता है कि इस प्रवृत्ति का जितना वेग उसमें है उसका कुछ अंश उसकी प्रेमिका में भी आ जाय ।
Then haste, kind good head and inspire A portion of your sacred fire
To make her feel.
That self consuming zeal
The cause of my decay
That was to my very heart away,
आर्यरमणियों का विरह-वेदना को मूक भाव से सहन करने का चित्र निम्न छंद में बहुत अच्छा अंकित किया गया है
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पूर अँसुवान को रह्यो जो पूरि अखिन में, चाहत बहथो पर बढ़ि बाहिरै बहै नहीं । कहै 'पदमाकर' सुदेखेहु तमाल तरु > चाहत गहोई पै है गहब गहै नहीं ॥
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