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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ
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हैं कि उनकी जोड़ के छंद हिंदी साहित्य में कदाचित् हृढ़ने पर ही मिल सकें । फाग खेलने की उन्मत्तावस्था में कुछ व्रज-बालाओं मिलकर श्याम की जैसी दुर्दशा की है वह देखने ही योग्य है—
चंद्रकला चुनि चुनरि चारु दई पहिराय | सुनाय सुहोरी । बेंदी बिसाखा रची 'पदमाकर' श्रंजन श्रजि समाजि कै शेरी ॥ लागी जबै ललिता पहिरावन स्याम को कंचुकि केलर बोरी । हरि हरे मुसक्याय रही चरा मुख दै बृषभानु-किसोरी ॥
नटखट श्याम अपनी उस अवस्था पर खीके हों या रीके; पर उनके साथी तो उनका वह वेश देखकर वृषभानु-किशोरी के समान मुसकाए ही नहीं, खूब ठठाकर हँसे भी होंगे और जो लोग पद्माकर के काव्य-चित्र की सहायता से अपने कल्पनाकाश में उनकी उस अवस्था का अनुभव करने की चेष्टा करेंगे वे अब भी अपने मन में एक प्रकार के पवित्र आनंद तथा मधुर गुदगुदी का सहज सुख अवश्य अनुभव करेंगे ।
इस काव्य - चित्र में कवि ने नारियों की उन्मत्तावस्था का वर्णन किया है पर साथ ही वृषभानु-किशोरी की मुस्कराहट के समय मुख में आँचल देकर आर्य महिलाओं की लज्जा-मर्यादा की सहज ही रक्षा कर ली है । इतनी उन्मत्त भावनाओं का वर्णन करते हुए भी मर्यादा की इस प्रकार रक्षा करना साधारण कवि का काम नहीं है ।
जीवन के सत्य के समान संयोग और वियोग दोनों इसी संसार की तारतम्यबोधक उपभोग अवस्थाएँ हैं । भाव-अभाव, प्रकाशअंधकार, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद के समान ही संयोग और वियोग का भी परस्पर अन्योन्य संबंध है । एक की स्थिति से दूसरे की स्थिति पुष्ट होती है । मानव-जीवन में संयोग और वियोग दोनों का ही अपना अपना विशेष स्थान और महत्त्व है । इसी से
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