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नागरीप्रचारिणी पत्रिका मोहि मोहि मोहन को मन भयो राधामय,
राधा मन मोहि मोहि मोहन मई मई ॥ देवजी की राधा पद्माकर की राधा की अपेक्षा अत्यधिक अधोर हैं। उनकी अधीरता के कारण उनका प्रेम स्पष्ट हो गया है। वह प्रथमावस्था पार कर द्वितीय या तृतीय अवस्था में पहुंच गया है। इससे अब उनमें वह लज्जा का भाव भी नहीं रहा। एक परकीया नायिका में प्रेम का यह प्रकट स्वरूप कहाँ तक श्लाघ्य है, इस स्थल पर उसकी विवेचना अभीष्ट नहीं; पर पद्माकर की राधा के संबंध में इतना तो अवश्य कहा जायगा कि उनकी लज्जा भारतीय आदर्श के अनुरूप है, साथ ही देव की राधा की प्रेमज्वाला की अपेक्षा उनकी प्रेम-ज्वाला भी कम नहीं है। इसके अतिरिक्त पद्माकर के काव्य में उभय पक्ष के सम-प्रेम तथा समव्यवहार का चित्रण हुआ है जो सर्वथा स्वाभाविक है; किंतु देव के काव्य में राधा की व्याकुलता जिस मात्रा में प्रदर्शित की गई है, कृष्ण की वैसी नहीं, यद्यपि संसार में अधिकतर नारी-जाति की अपेक्षा पुरुष का ही प्रेम अधिक चंचल एवं स्पष्ट देखा जाता है। कपिल के अनुसार भी प्रकृति एवं पुरुष सम भाव से पारस्परिक सम्मिलन के लिये प्रस्तुत रहते हैं । प्रेम की अग्नि जब तक दोनों हृदयों में बराबर प्रदीप्त नहीं होती तब तक कोई आनंद ही नहीं, फिर यह 'मुमकिन नहीं कि दर्द इधर हो उधर न हो।' पद्माकर के इस काव्य-चित्र में आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक भावों का समान सम्मिश्रण है। दोनों सम भाव से सजीव एवं मूर्तिमान हो उठे हैं। पद्माकर का यह काव्य-चित्र उनकी अंत:सौंदर्य-प्रदर्शनात्मक शक्ति का एक उत्तम उदाहरण है।
पद्माकर ने प्रेम-क्रीड़ा एवं उन्मत्त भावनाओं के भी अनेक चित्र अंकित किए हैं, जो एक से एक बढ़कर सुंदर हैं और ऐसे
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