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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ
२२१ ये इत घूघट घालि चलै उत बाजत बाँसुरी की धुनि खाले । त्यो 'पदमाकर' ये इतै गोरस लै निकसै यों चुकावत मेोले ।। प्रेम के पंथ सुप्रीति के पैठ में पैठत ही है दसा यह जो ले। राधामई भई स्याम की मूरति स्याममई भई राधिका डालै ॥
विद्यापति ने भी अपनी राधा का कुछ ऐसा ही चित्र अंकित किया है
पथ-गति नयन मिलल राधा कान । दुहुँ मन मनसिज पुरल संधान ॥
दुहुँ मुख हेरहत दुहुँ भेल भोर ।
समय न बुझए अचतुर चोर ॥ विदगधि संगिनि सब रस जान । कुटिल नयन कएलन्हि समधान ॥
चलल राजपथ दुहुँ उरमाई ।
कह कवि सेखर दुहुँ चतुराई ॥ विद्यापति तथा पद्माकर दोनों ने प्राय: एक ही अवस्था का चित्र अंकित किया है। किंतु विद्यापति की अपेक्षा पद्माकर के चित्र में कहीं अधिक तल्लीनता एवं विदग्धता पाई जाती है। मैथिल कवि-कोकिल का यह चित्र उनके चित्र के सम्मुख फीका पड़ गया है। इसकी अपेक्षा देवजी का चित्र कहीं अधिक उत्तम बन पड़ा है
रीमि रीमि रहसि रहसि हसि हसि उठे,
साँसै भरि आँसू भरि कहति दई दई । चौंकि चौंकि चकि चकि उचकि उचकि देव,
जकि जकि बकि बकि परत बई बई ॥ दुहुन को रूप गुन दोऊ बरनत फिरें,
घर न थिरात रीति नेह की नई नई।
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