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नागरीप्रचारिणी पत्रिका Like a naked-bride Glowing at once with love and loveliness
Blushes and trembles at its own excess. शेली की नायिका लज्जाभार के कारण अपने को सँभालने में असमर्थ है और पद्माकर की नायिका आलस्य के कारण उसे सँभालने में असमर्थ हो रही है, क्योंकि वह वार-वधू है और उसके निकट लज्जा की कोई विशेष आवश्यकता नहीं।
प्रकृति-पुरुष के अनुराग-पाकर्षण से ही इस सृष्टि का आविर्भाव माना गया है और उनके विच्छेद में ही उसका तिरोभाव । अस्तु, अनुराग या प्रेम ही इस सृष्टि का मूल है। मूल के बिना यह सृष्टि टिक नहीं सकती। प्रकृति-पुरुष के इसी महत् प्रेम की प्रतिच्छाया नर-नारी के प्रेम-योग में पाई जाती है। सांसारिक जीवन में इस प्रेम की महिमा भो अपार है-अनंत है। इसी से प्राय: सभी विश्वजनीन कवियों ने अलौकिक एवं लौकिक प्रेम के स्तवन द्वारा अपनी वाणी को पवित्र किया है। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, होमर, शेक्सपियर,गेटे, शिलर, दांते, वर्जिल,शेली, सूर, तुलसी आदि विश्व के प्राय: सभी कवियों ने प्रेम के गीत गाए हैं। राम और सीता, कृष्ण और राधा,फर्डिनंड और मीरांडा आदि सभी का इस संसार से प्रस्थान हो चुका है, किंतु उनकी प्रेम-गाथा अब तक जीवित है । इस मर्त्य-लोक में वह अब भी अमर प्रेम-सुधा की वर्षा करती है। पद्माकर ने भी अपने काव्य में उसी प्रेम का प्रदर्शन किया है। भारतीय प्रेम की प्रारंभिक अवस्था का चित्र उन्होंने अच्छा दिखाया है।
रूप दुहूं की दुहून सुन्यो सु रहैं तब ते मना संग सदाहीं। ध्यान में दोऊ दुहून लखें हर अंग अंग अनंग उछाहों ॥ मोहि रहे कब के यों दुहूँ 'पदमाकर' और कछू सुधि नाहीं । मोहन को मन मोहिनि में बस्यो मोहिनि को मन मोहन माहीं ॥
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