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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २१६ भोर जगि प्यारी अध-उरध इतै की ओर
भाषी झिषि फिरकि उँचारि अध पलकें। भाखै अधखुली अधखुली खिरकी है खुली,
अधखुले श्रानन पै अधखुली अलकै । पारस से भारत सम्हारत न सीसपट,
गजब गुजारत गरीबन की धार पर । कहै 'पदमाकर' सुगंध सरसावै सुचि,
विथुरि बिराजै बार हीरन के हार पर ॥ छाजत छबोली छिति छहरि छटा की छोर
मोर उठि बाई केलि-मंदिर के द्वार पर। एक पग भीतर सु एक देहली पै धरे,
एक कर कंज एक कर है किवार पर ॥ प्रभावोत्थिता विपर्यस्तवसना वार-वधूटियों के अलस-सौंदर्य का उक्त दोनों उंदों में जो हृदयग्राही एवं मूर्त्तिमान चित्रांकण हुआ है वह पद्माकर जैसे अनुभवी तथा रस-सिद्ध कवि के सर्वथा योग्य है। सुरुचि के वर पुत्र कुछ महानुभावों को उक्त वर्णनों में गलित शृंगार की गंध भले ही मिले, पर कवि ने जिस चित्र को अंकित करना चाहा है उसमें उसे पूर्ण सफलता मिली है। इन्हें पढ़कर पीयूषवर्षी कवि जयदेव की निम्नांकित पंक्तियाँ स्वत: याद आ जाती हैंव्यालोलः केशपाशस्तरलितमलकैः स्वेदलोलो कपोलो
दृष्टा बिम्बाधरश्री कुचकलशरुचा हारिता हारयष्टिः । काञ्ची कांचिद्गताशां स्तनजघनपदं पाणिनाच्छाद्य सद्यः
पश्यन्ती सत्रपमान्तदपि विलुलितस्रग्धरेयन्धुनोति ॥ शेली की लावण्यमयी सलज्जा नायिका भी दर्शनीय
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