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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ
श्रवयवेषु परस्परविम्बितेष्वतुलकान्तिषु राजति तत्तनेाः । श्रयमयं प्रविभाग इति स्फुटं जगति निश्चिनुते चतुरोऽपि कः ॥ अर्थात् नायिका के अवयव, अपनी निर्मल कांति के कारण, परस्पर प्रतिबिंबित हो रहे हैं । इससे उनके विभाग का ज्ञान ही नहीं हो पाता । उनका वास्तविक ज्ञान संसार का कोई चतुर प्राणी ही प्राप्त कर सकता है ।
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सुन्दरी ( कीदृशी ) सा भवत्येष विवेकः केन जायते । प्रभामात्र हि तरलं दृश्यते न तदाश्रयः ॥ - दंडी । अर्थात् सुंदरी की सौंदर्य-प्रभा इतनी अधिक है कि केवल प्रभामात्र दिखाई पड़ती है । उसमें छिपा हुआ उसका आश्रय अर्थात् शरीर नहीं दिखाई पड़ता ।
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दिला, क्योंकर मैं उस रुखसारे-रोशन के मुकाबिल हूँ ।
जिसे खुरशीदे - प्रहशर देखकर कहता है मैं तिल हूँ ॥ — अकबर | अर्थात्
वह मुख भरि हग क्यों लखौं श्रतिशय ज्योतिष्मान । प्रलय-भानु जेहि तकि कहै मैं मुख-मसा समान ॥
इस अतिशयोक्तिपूर्ण सौंदर्य प्रभा के सम्मुख कविवर हनुमान
की नायिका की सौंदर्य - प्रभा, जिसके लिये उन्होंने लिखा है"बि दामिनी जात प्रभा निरखे कितनी छबि मंजु मसाल की है ।" या सेनापति की नायिका की सौंदर्य - प्रभा, जिसके लिये लिखा है कि
"फलकत गोरी देह बसन, फीने में माना
फानुस के अंदर दिपति दीप-जाति है"
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तो पानी ही भरेगी । हाँ, मिल्टन की ईव का वर्णन अवश्य ही श्रेष्ठ और स्वाभाविक है
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