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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २१५ वर्णन साफ-सुथरा तथा स्वभाव-सम्मत हुआ है। उन्होंने जिस भाव को 'होति न लखाई निसि चंद की उज्यारी मुख-चंद की उज्यारी तन-छाहैं। छिपि जाति है' के द्वारा व्यक्त किया है, उसी को पद्माकर ने-'तिय प्रागम पिय जानिगो, चटक चाँदनी पेखि' कहकर दिखाया है। कवित्त की अपेक्षा दोहा बहुत ही छोटा छंद है। थोड़े से सांकेतिक शब्दों में अधिक से अधिक भाव को प्रदर्शित करने में ही उसकी सफलता मानी जाती है। हमारे विचार से जिस भाव को मतिराम ने विस्तार के साथ प्रदर्शित किया है, पद्माकर के दोहे में उसका पूर्ण समावेश हो गया है वरन् कुछ
और का भी। दोहे में शुक्लाभिसारिका का बहुत ही सफल निर्वाह हुआ है। काव्य की सफलता विस्तृत वर्णन में ही नहीं है वरन् पाठकों की कल्पना के लिये विस्तृत विहार-क्षेत्र के प्रस्तुत करने में भी है। इस दोहे के द्वारा पद्माकरजी वैसा करने में पूर्ण सफल हुए हैं। यह दोहा उनकी प्रतिभा का एक उत्कृष्ट नमूना है।
पद्माकर का एक अन्य छंद भी नायिका की सौंदर्य-प्रभा के वर्णन में है। वह यद्यपि उक्त दोहे के समान उत्कृष्ट नहीं हुआ है फिर भी अवलोकनीय अवश्य है
जाही जुही मल्लिका चमेली मनमोदिनी की
कोमल कुमोदिनी की उपमा खराब की । कहै पदमाकर' त्यों तारन बिचारन को
बिगर गुनाह अजगैबी गैर श्राब की॥ चूर करी चोखी चाँदनी की छबि छलकत
पलक में कीन्हीं छीन श्राब महताब की। पा परि कहत पीय कापर परैगी भाज
गरद गुलाब की प्रवाई श्राफताब की ।।
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