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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २१३ "लालन को जाल है कि ज्वालनि की माल है कि रवि है कि चंद है।"
आश्चर्य के भाव को वे जहाँ तक उत्तेजन दे सकते थे, दिया है। किंतु उनकी नायिका श्रृंगार-भाव का उद्रेक करने में बहुत सफल नहीं है। सेनापति ने अपनी नायिका को फानूस में रखे हुए दीपक की ज्योति जैसी बतलाया है। देह-दीप्ति में वह कालिदास की नायिका के सम्मुख अवश्य ही दीन है, किंतु वह "बालम के उर बीच आनँद को बोति है।" दोनों ही काव्यों में प्रतत्प्रकर्ष अथवा अकम दोष है। कालिदास ने 'रवि है कि चंद है' कहकर तथा सेनापति ने "चंद की कला सी चपला सी तिय" को "दीप ज्योति है" कहकर नायिकाओं की अंग-प्रभा को तिमंजिले से नीचे पटक दिया है। पद्माकर के काव्य में ये सब दोष नहीं आने पाए हैं। उन्होंने अपनी नायिकाओं की अंग-प्रभा के संबंध में जो कुछ भी कहा है वह बहुत ही स्वाभाविक तथा मनोतृप्तिकर हुआ है। स्वाभाविक तथा सजीव चित्रण ही पद्माकर की काव्य-साधना की विशेषता है।
पद्माकर ने उक्त दोहे में शुक्लाभिसारिका का वर्णन किया है। अस्तु, दो अन्य कवियों की शुक्लाभिसारिकाओं से भी उसकी तुलना कर लेनी चाहिए। किंसुक के फूलन के फूलन बिभूषित कै ।
बांधि लीनी बलया बिगत कीन्हीं रजनी । तापर संवारयो सेत अंबर को डंबर
सिधारी स्याम सन्निधि निहारी काहू न जनी ॥ छीर के तरंग की प्रभा को गहि लीन्ही तिय
कीन्ही छीरसिंधु छिति कातिक की रजनी । अानन-प्रभा ते तन-छांह हूँ छिपार जाति
भैौरन की भीर संग लाए जाति सजनी ॥ -दास ।
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