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________________ पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २०७ अवश्य चढ़-बढ़ गई है। किंतु पद्माकर को ऐसे कल्पनातीत वर्णन अभीष्ट नहीं थे। उन्होंने अतिशयोक्ति वहीं तक की जहाँ तक वह बुद्धि-ग्राह्य हो सके। शैशव से यौवनावस्था में पदार्पण करते हो शरीर में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं। वे इतने नेत्ररंजक, मनोमुग्धकर तथा महत्त्वपूर्ण होते हैं कि भारतीय कवि उनका वर्णन करते करते मानों थक से गए हैं और फिर भी कुछ नहीं कर सके हैं। पद्माकर ने भी इस अवस्था का अच्छा वर्णन किया है कछु गजगति के श्राहटनि छिन छिन छीजत सेर । बिधु बिकास बिकसत कमल कछू दिनन के फेर ॥ मुग्धा का यौवनागम है, जिसे कवि ने विरोधाभास अलंकार की सहायता से प्रदर्शित किया है। समय का ऐसा हेर-फेर हो गया है कि गजगति के प्राहट से सिंह प्रत्येक क्षण क्षीण होता जाता है, अर्थात् ज्यों ज्यों गति मंद होती जाती है त्यो त्यों कमर पतली पड़ती जाती है। चंद्रमा के विकास से कमल विकसित होता है-यह भी विपरीत घटना है। तात्पर्य यह कि ज्यों ज्यों मुखचंद्र की छटा बढ़ती जाती है त्यो त्यों नेत्र विकासमान हो रहे हैं। इसी से तो बिहारी ने भी कहा है पल पल पर पलटन लगे जाके अंग अनूप । ऐसी इक ब्रजबाल को को कहि सकत सरूप ॥ पद्माकर का उपर्युक्त दोहा उनकी विदग्धता का अच्छा परिचायक है ए अलि, या बलि के अधरान में आनि चढ़ी कछु माधुरई सी। ज्यों 'पदमाकर' माधुरी त्यों कुच दोउन की चढ़ती उमई सी ॥ ज्यों कुच त्यों ही नितंब चढ़े कछु ज्यों ही नितंब त्यों चातुरई सी। जानि न ऐसी चढ़ाचढ़ि में केहि धौ कटि बीचहि लूटि लई सी ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034974
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1935
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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