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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सुंदर सुरंग नैन सोभित अनंग रंग,
अंग अंग फैलत तरंग परिमल के । बारन के भार सुकुमारि को बचत लंक,
राजै परजंक पर भीतर महल के ॥ कहै 'पदमाकर' बिलोकि जन रीझै जाहि,
अंबर अमल के सकल जल थल के। कोमल कमल के गुलाबन के दल के,
सुजात गडि पायन बिछौना मखमल के ॥ पर्यकोपस्थिता, कोमलांगी राजकुलांगना के बाह्य सौंदर्य एवं सौकुमार्य का अतिशयोक्ति अलंकार की सहायता से जो शब्द-चित्र अंकित किया गया है वह यद्यपि बहुत उत्कृष्ट नहीं है किंतु प्रशंसनीय है; इसकी प्रसिद्धि भी यथेष्ट है । इसी स्थल पर अकबर और नासिख के दो पद भी मिलान कर देखने योग्य हैं
नाजुकी कहती है सुरमा भी कहीं बार न हो।-अकबर । यों नज़ाकत से गरी सुरमा है चश्मे-यार को।
जिस तरह हो रात भारी मर्दुमे बीमार को ।।-नासिख । पद्माकर ने पद की स्वभावतः कठिन त्वचा की कोमलता द्वारा नायिका के कोमल प्राण एवं शरीर का परिचय दिया है। नज़ाकत तो यहाँ तक है कि किसी बाहरी पदार्थ के बोझ की तो बात दूर रही, वह अपने ही शरीर के बालों के बोझ से बारंबार बल खाती है। ऐसी अवस्था में उसकी सुकुमारता के सम्मुख मकबर तथा नासिख की सुकुमारता, जिसमें आँखों में सुरमा लगाकर उसका बोझ असह्य बताया गया है, कहाँ तक होड़ ले सकती है ? हाँ, हिंदी के रसलीन की वह सुकुमारता, जिसके लिये उन्होंने लिखा है,
तुव पग-तल मृदुता चितय कवि बरनत सकुचाहिं । मन में प्रावत जीभ लैों मत छाले परि जाहि ॥
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