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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २०५ हिंदी के कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी की नारी-सौंदर्यानुभूति बहुत ही उत्कृष्ट और पवित्र हुई है। उसमें आध्यात्मिकता का पूर्ण विकास है। साधारण जन के लिये उसकी कल्पना भी असंभव है। कल्पनातीत की कल्पना कोई पारदर्शी कवि ही कर सकता है। सूरदास की सौंदयानुभूति में आध्यात्मिकता तथा भौतिकता का मिश्रण पाया जाता है। तुलसीदास के काव्य में सौंदर्य का शरदिंदु विकसित हुआ है जिससे मन और प्राण शीतल हो जाते हैं। सूरदास की उपमा-बहुल रचनाओं में विद्युत् की तड़प है जिससे तृप्ति के स्थान पर पिपासा ही जागरित होती है। विद्यापति के काव्य में सुरदास की अपेक्षा भौतिकता की मात्रा कहीं अधिक है, साथ ही साथ उसमें ऐंद्रियता का भी विकास पाया जाता है। उन्होंने उसमें जिस सौंदर्य को प्रस्फुटित किया है, उसका उपभोग साधारण काव्य-प्रेमी भी कर सकते हैं। केशवदास ने न तो किसी अलौकिक सौंदर्य की कल्पना की है और न भौतिक सौदर्य का चित्रण। उनके काव्य में न तो ऐंद्रियता है और न सरलता ही; है केवल विस्मयोत्पादक शक्ति। वह आनंदोद्रेक करने की अपेक्षा आश्चर्य का भाव ही अधिक उत्पन्न करती है, किसी प्रकार के रूप का अनुभव कराने की अपेक्षा कवि की कवित्व-शक्ति का ही अधिक परिचय देती है। इन महाकवियों के साथ पद्माकर की सौंदर्यानुभूति का मिलान करके देखने से वह सर्वथा भिन्न प्रकार की प्रतीत होती है। उसमें केवल भौतिक तत्त्वों का वर्णन पाया जाता है। उसमें ऐंद्रियता तथा भावानुभूति दोनों ही का अच्छा विकास हुआ है। जिस चित्र का अंकन किया गया है, वह मानो मूर्त्तमान हो उठा है-संजीवित हो गया है-सर्वजनोपभोग्य बन गया है। कोमलकलेवरा कामिनी के रूप-कांचन का वर्णन देखिए
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