________________
पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २०३ उनका श्रृंगार-काव्य जितना प्रसिद्ध है उतना अन्य काव्य नहों । हम भी इस स्थल पर पहले शृगार-काव्य का दिग्दर्शन कर भक्ति और वीर काव्य पर किंचित् प्रकाश डालने की चेष्टा करेंगे।
पद्माकर की कल्पना का विहार-क्षेत्र अथवा उनके भाव-राज्य का विस्तार बहुत व्यापक नहीं कहा जा सकता। वाल्मीकि अथवा सूर के कल्पनाकाश के समान न तो उनके काव्य में अनुभूति-विस्तार पाया जाता है और न कबीर के भाव-सागर का सा गांभीर्य ही। उनकी कविता न तो आदर्शवादी भवभूति अथवा तुलसी की सी पुण्य देव-भावनाओं से ओत-प्रोत है और न शेक्सपियर की भाँति संसार की नरकाग्नि का ही चित्रण करती है। उनके भाव नर. नारियों के सौंदर्य की उपासना में ही सीमित हैं। वे उतने में ही यथेष्ट सुंदर रूप में विकसित हुए हैं। उनकी कल्पना यद्यपि कृशनदना है, किंतु सौंदर्य तथा मादकता से इतनी परिपूर्ण है कि वह अपने प्रेमियों के मन के साथ तादाम्य स्थापित कर उन्हें तन्मय बना देती है। उनकी कविता के स्वर्ण-संसार में पहुँचकर मनुष्य कुछ काल के लिये अपने वर्तमान अस्तित्व से बेसुध हो जाता है। संसार की नरकाग्नि तथा जीवन की जटिलताएँ उसे विस्मृत सी हो जाती हैं और वह एक ऐसे स्वप्न-लोक में पहुँचता है, जहाँ प्रेम का साम्राज्य है, प्रेम के ही वशीभूत होकर आकाश अपनी निर्मल नीलिमा प्रदर्शित करता है, चंद्र अपनी धवल किरणे विकीर्ण करता है, अरुण राग-रंजित मुसकान भरता है, वायु मृदु गुदगुदी से शरीर को पुलकित करता है और फूल-पत्ते अपनी बहुरंगी आकृति से चित्त को आकर्षित करते हैं। वहाँ के नर-नारी प्रेम के ही प्रानंद से आनंदित रहते हैं और प्रेम की ही पीड़ा से पीड़ित । उनकी प्रेमपुरी की नायक-नायिकाएं कहने को तो इसी संसार की साधारण गोप-गोपिकाएँ हैं, पर हैं वे राज
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com