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नागरीप्रचारिणी पत्रिका ध्यान दिया जायगा, वहाँ भावों का नैसर्गिक प्रवाह अवश्य भंग होगा और भाषा में अवश्य तोड़-मरोड़ करनी पड़ेगी। संतोष की बात इतनी ही है कि उनके छंदों में उनकी भाव-धारा को स्वच्छ, सरल प्रवाह मिला है, जिनमें हावों की सुंदर योजना के बीच में सुंदर चित्र खड़े किए गए हैं।.........मुक्तक रचनाओं में पद्माकर ने अच्छा चमत्कार प्रदर्शित किया है। आधुनिक हिंदी के कुछ कवियों तथा समीक्षकों की दृष्टि में पद्माकर रीति-काल के सर्वोत्कृष्ट कवि ठहरते हैं।.........इनकी भाषा का प्रवाह बड़ा ही सुंदर और चमत्कारयुक्त है।" ब्रजभाषा के कवियों में पद्माकर के उच्च स्थान पाने का अधिकांश श्रेय उनकी सुदर सानुप्रास भाषा को ही है। सुदर भाषा के प्राय: सभी गुण पद्माकर की भाषा में पाए जाते हैं। रीति-कालीन कवियों में भाषा-सौष्ठव के विचार से पद्माकर का स्थान प्रथम श्रेणी में ही माना जायगा।
पद्माकर की प्रतिभा ने अपनी काव्य-धारा को त्रिमुखी प्रवाहित किया है। उनकी हिम्मतबहादुर-विरुदावली तथ प्रतापसिंह विरुदावली में वीरगाथा काल की स्मृति पाई जाती है, उनके राम. रसायन, प्रबोध-पचासा, ईश्वरपञ्चोसी यमुनालहरी तथा गंगा-लहरी में भक्ति-काल का दर्शन मिलता है एवं उनके पद्माभरण, जगद्विनोद तथा प्रालीजाहप्रकाश से रीति-काल का ज्ञान होता है । इस प्रकार पद्माकर के काव्य में हिंदी-साहित्य के इतिहास के तीनों कालों की काव्य-प्रवृत्ति का समन्वय पाया जाता है। जो काल जितने ही पहले का है, पद्माकर को तत्कालीन काव्य-प्रवृत्ति की रक्षा में उतनी ही कम सफलता मिली है। वीर-काव्य की अपेक्षा उनका भक्तिकाव्य उत्तम हुआ है और भक्ति-काव्य की अपेक्षा उनका श्रृंगारकाव्य । श्रृंगार-काव्य लोकरुचि के अनुकूल होता है, इसी से
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