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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ २०१ अनुकूल हुआ है। सरल शब्दों एवं छोटे वाक्यों के प्रयोग से भाषा में ऐसा माधुर्य एवं प्रवाह आ गया है, जो हृदय में स्वर्गीय आनंद का आविर्भाव कर मन को मुग्ध बना देता है।
भाषा की दृष्टि से पद्माकर का स्थान बहुत ऊँचा है। उनकी भाषा भाव की अनुरूपिणी हुई है। उनकी भाषा की लोक-प्रियता के तीन प्रधान कारण हैं-(१) तत्कालीन प्रचलित शब्दों का छोटे वाक्यों में प्रयोग, (२) उचित वृत्त और अलंकारों का उपयोग, (३) प्रवाह का निर्वाह ! उनकी भाषा में मिश्रित वाक्य (Complex sentence ) का कोई उदाहरण ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता। अमिश्रित वाक्यों तथा सहज बोधगम्य शब्दों के प्रयोग के कारण उनकी भाषा में जटिलता नहीं आने पाई है। वह स्वच्छ, सरल, तरल और सर्वजनोपभोग्य हुई है। उनकी प्रसादगुण-संपन्न सजीव भाषा के साथ सुंदर भावों का मिश्रण बहुत ही मनामुग्धकर हुआ है। उनकी शैली में न तो चंद या कबीर की सी रूक्षता है और न केशव की सी क्लिष्टता। वह मक्खन-मिस्री के समान है जो मुख में रखते ही कंठ के नीचे उतर जाता है और मन तथा प्राण को शीतल एवं संतुष्ट कर देता है। भाषा तथा शैली का सबसे बड़ा गुण यही है कि कवि जिस चित्र को अंकित करना चाहे उसे ये मूर्त्तमान कर दें। पद्माकर की भाषा तथा शैली में यह गुण उत्कृष्ट रूप में पाया जाता है। उनकी भाषा के संबंध में जो कुछ भी आक्षेप है वह है उसकी अनुप्रास-बहुलता पर। यद्यपि यह आक्षेप बिल्कुल निराधार नहीं है, फिर भी हम कह सकते हैं कि जिस तीव्रता से उनकी भाषा पर यह दोषारोपण किया जाता है, वह उसके योग्य नहीं है। इस संबंध में राय बहादुर पाबू श्यामसुंदरदासजी की सम्मति सर्वथा उपयुक्त है-“पद्माकर की अनुप्रास-प्रियता बहुत प्रसिद्ध है। जहाँ अनुप्रासे की ओर अधिक
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