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नागरीप्रचारिणी पत्रिका उनकी कविता का सौंदर्य यथेष्ट रूप में विकसित हुआ है। यद्यपि कभी कभी अपने समय की परिपाटी के अनुसार शब्दालंकार के प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने काव्य के अर्थ-गौरव पर कम ध्यान दिया हैकिंतु फिर भी उसके सौंदर्य में विशेष कमी नहीं आने पाई है। इस स्थल पर पृथक रूप से उनके अलंकार-सौंदर्यप्रदर्शन की विशेष आवश्यकता नहीं प्रतीत होती; क्योंकि अलंकारविहीन छंद उन्होंने बहुत कम लिखे हैं ।
पद्माकर की भाषा का प्रवाह सर्वोपरि अवलोकनीय है। उनकी भाषा में जो प्रवाह है वह हिंदी के दो-चार इने-गिने कवियों में ही पाया जा सकता है। अलंकार आदि उनकी भाषा को उत्कृष्ट बनानेवाले उपकरण अवश्य हुए हैं; पर वास्तव में उनकी भाषा का प्रवाह ही इतना उत्तम हुआ है-उनके शब्दों का चुनाव ही इतना उत्कृष्ट है कि किसी प्रकार के अलंकार आदि की सहायता न लेते हुए भी उन्होंने जिस भाव को अंकित करना चाहा है, वह मूर्त्तमान हो उठा है-प्रत्यक्ष हो गया है। इसी कारण पद्माकर काव्य-कलाकारों में कुशल चित्रकार माने गए हैं। उनकी भाषा की यही सबसे बड़ी विशेषता है। उदाहरणार्थ
बछरै स्वरी प्यावै गऊ तिहिको पदमाकर को मन लावतु हैं। तिय जानि गरैया गही धनमाल सु ऐंच्यो लला इच्यो श्रावतु हैं । उलटी करि दोहिनि मोहिनि की अँगुरी यन जानि दबावतु हैं । दुहिबो भौ' दुहाइबो दोउन को सखि देखत ही पनि श्रावतु है ॥
प्रांतर सौंदर्य का कितना सुंदर चित्र है ! प्रेमाधिक्य में कितनी अधिक तन्मयता है ! विभ्रम हाव का ऐसासजीव एवं स्वाभाविक चित्र हिंदी-साहित्य में बहुत कम देखने को मिलेगा। ऐसा प्रतीत होता है मानों यह घटना नेत्रों के सम्मुख ही घट रही है। इसी में तो भाषा की सार्थकता है ! उपनागरिका वृत्ति का प्रयोग श्रृंगाररस के
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