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पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ
१६६ भाषा तथा भाव दोनों ही कितने सहज एवं सरल रूप में अंकित हुए हैं। छोटे सरल वाक्यों में एक सती की हृदय-कामना जैसे प्रत्यक्ष बोल रही है। सती का हृदय-सौंदर्य जितना हो सात्त्विक और उच्च भावना से पूर्ण है, आउंबरहीन मधुर शब्दों का चुनाव भी उतना ही उत्कृष्ट हुआ है।
लोकोक्ति, कहावत अथवा मुहाविरों के प्रयोग से भाषा बहुत सुंदर और प्रभावोत्पादक बन जाती है। पद्माकर के काव्य में ऐसे प्रयोगों का दर्शन भी यथेष्ट रूप में मिलता है
जो बिधि भाल में लीक लिखी से बढ़ाई बढ़े न घटै न घटाई । दोष पसंत को दीजै कहा उलहै न करील के डारन पाती । तन जोबन है घन की परछाहीं। अब हाथ के कंगन को कहा पारसी । साँचहुँ ताको न होत भलो जो न मानत है कही चार जने की ।
चाहै सुमेरु को राई करै रचि राई को चाहै सुमेरु बनावै । सोने में सुगंध न सुगंध में सुन्यो री सोना, सोना श्री' सुगंध तोमें दोनों देखियतु है ।
आपने हाथ से अापने पाय मैं पाथर पारि परयो पछताने । बात के लागे नहीं ठहरात है ज्यों जलजात के पात पै पानी । इत्यादि। __इन सबके अतिरिक्त पद्माकर ने अनेक अलंकारों के द्वारा अपनी भाषा को सुसजित करने की चेष्टा की है। अलंकार से भाषाप्रयोग की चमत्कारपूर्ण शैली का तात्पर्य है। पद्माकर का अलंकारों का प्रयोग अत्यंत उपयुक्त तथा स्वाभाविक हुआ है। किसी अनाड़ी राजकुलांगना के समान उनकी कविता-कामिनी न तो अलंकारों के बोझ से दबी हुई है और न किसी ग्राम्य बाला के समान निराभरणा ही है । नागरिक रमणियों के समान उसमें अल्प किंतु सुदर अलंकारों का उपयुक्त समावेश देखा जाता है जिससे
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