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नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाव को मूर्तमान करने के साथ ही साथ सब के लिये बोधगम्य होती है उसी को सुंदर भाषा कहा जा सकता है। पद्माकर की भाषा ऐसी ही हुई है। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित हिंदी-बुंदेलखंडी-मिश्रित ब्रजभाषा में अपनी रचनाएँ की हैं। यद्यपि उनकी रचनाओं में कहीं कहीं प्राकृत अपभ्रंश का प्रभाव भी दृष्टिगत होता है, किंतु ऐसा प्रयोग उनके वीर एवं रौद्र-रस-संबंधी काव्यों में ही पाया जाता है। भाषा की सुबोधता के विचार से उस समय के सर्व-साधारण में प्रचलित उर्दू शब्दों का उन्होंने यथेष्ट व्यवहार किया है। अधिकतर उन्होंने उर्दू अथवा फारसी शब्दों के तद्भव रूप का ही प्रयोग किया है; जैसे-फराकत, फरसबंद, रोसनी, अजार इत्यादि । परंतु कहीं कहीं तत्सम रूप का भी प्रयोग देखा जाता है; जैसेकलाम, जालिम, मुकर्रर आदि। काव्य में ग्राम्य एवं अप्रचलित शब्दों का प्रयोग दोष माना गया है; पर वैसे शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा में कम नहीं पाया जाता, यथा-करेजा, गरैया, खसबोय आदि। परंतु ऐसे शब्दों का प्रयोग उन्होंने ऐसी खूबी से किया कि उनके काव्य की सुंदरता में कोई अंतर नहीं आया है, वरन् उसका उत्कर्ष ही हुआ है। नाद-साम्य एवं अनुप्रासों की रक्षा के विचार से ही उन्होंने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। नादसाम्य और अनुप्रास-बहुल भाषा अत्यंत श्रवणसुखद होती है, इसी से उसके प्रति उनका अत्यधिक प्रेम देखा जाता है। उनके प्रायः सभी छंदों में अनुप्रासों की वाहिनी देखी जाती है। यहाँ पर एक उदाहरण देना अनुचित न होगा
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलित कलीन किलकत है। कहै 'पदमाकर' पराग हू में पौन हू में,
पातिन में पीकन पलासन पगंत है ।।
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