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(७) पद्माकर के काव्य की कुछ विशेषताएँ
[ लेखक-श्री अखौरी गंगाप्रसाद सिंह, काशी]
पद्माकर प्राचीन हिंदो-काव्य के अंतिम शैली-निर्मायक हो गए हैं। उनके पूर्व के शैली-निर्मायकों में चंद, सूर, तुलसी, केशव, बिहारी, मतिराम, देव, घनानंद, ठाकुर आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। यद्यपि पद्माकर के काव्य में हम उनके पूर्ववर्ती कवियों का यथेष्ट प्रभाव पाते हैं; किंतु उनकी सानुप्रास सरल सुकुमार भाषा, प्रभावोत्पादक वर्णन-शैली और उनके छंदों का सुढार बहाव उन्हें अन्य कवियों से सर्वथा पृथक कर देता है। उनकी शैली लोक-रुचि के इतना अनुकूल थी कि उनके पश्चात् हिंदी-काव्य की प्राचीन परिपाटी के जितने भी कवि हुए हैं, प्राय: उन सबने उनकी शैली को ही अपनाया है। इस स्थल पर पद्माकर के काव्य की उन विशेषताओं पर ही किंचित् प्रकाश डालने की चेष्टा की जायगी जिनके कारण वे ऐसे लोकप्रिय बन सके हैं। ___ काव्य के दो प्रधान अंग माने गए हैं-कला और भाव । कला से भाषा-प्रयोग के उस कौशल अथवा गुण से तात्पर्य है जो किसी नियम का आश्रय लेकर वर्णन में सुंदरता का आविर्भाव करे। भाव मन के उस विकार को कहते हैं जिसका निदर्शन काव्य में अभिप्रेत हो । कला काव्य का शरीर है तो भाव उसकी आत्मा। जिस वर्णन में दोनों का उत्कृष्ट प्रदर्शन हो वही श्रेष्ठ काव्य है।
काव्य-कला में भाषा ही मुख्य साधन है। सुंदर भाषा उन्नत भाव के अभाव में भी मन को मुग्ध कर लेती है और उन्नत भाव
संपन्न असुंदर भाषा उपेक्षणीय हो जाती है। जो भाषा कवि के अभिप्रेत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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