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नागरीप्रचारिणी पत्रिका पहनाकर उसे पुनः पूर्व रूप में ला देता है। इस कृपा के प्रोत्यर्थ सिंधुराज की सहायता के लिये वह ससैन्य वैयार हो आता है।
चतुर्दश सर्ग में विद्याधराधिप शशिकंद अपने सिंधुराज के रथ को मंत्रबल से, आकाश-मार्ग से,शीघ्र ही पाताल पुरी के निकटले जाताहै।
राजा वहाँ गंगातट-वर्ती एक उपवन में ठहर जाता है"तस्यास्तटेऽथ कुसुमावचयश्रमातसीमन्तिनीनिवहसस्मितवीक्षितायाः। विद्याधरेण विदधद् धवलार्मिधौतपर्यंतहेमसिकतेपृतनानिवेशः" ।
पंचदश सर्ग में पातालगंगा में सिंधुराज की जलक्रीड़ा का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया गया है। सर्ग का अंतिम श्लोक देखिएकंदर्पस्य त्रिलोकीहठविजयमहासाहलोत्साहहेतु
धुन्वस्तस्पक्ष्मधूलिव्यतिकरकपिशः काञ्चनाम्भोरुहाणि । तन्वानस्तीररूढत्रिदशतरुलतालास्यमालस्यभाजां
तासां सम्भोगकेलिलमभरमहरज्जाह्नवीवीचिवातः॥ षष्ठदश सर्ग में शशिप्रभा की सहचरी पाटला शशिप्रभा की स्थिति का दर्शक-पत्र लेकर, जो मालवतो द्वारा लिखा गया था, राजा के निकट पहुँची । राजा ने अपनी विरह-कथा को प्रत्यक्ष बतलाकर शशिप्रभा को आश्वासन देने को कहा-"मैं शीघ्र ही सभी साध्य उपायों से सुवर्ण-कमल प्राप्त कर पाने का प्रयत्न करता हूँ।" परंतु सुवर्ण-कमल लाने के प्रयत्न में राजा फंस जाता है।
सप्तदश सर्ग में दैत्यों, नागों और विद्याधरों के बीच युद्ध छिड़ जाता है। फिर 'वांकुश' सिंधुराज के द्वारा मारा जाता है। वहाँ से सुवर्ण-कमल लेकर राजा नागलोक में जा पहुँचता है।
अष्टदश सर्ग में सिंधुराज पातालेश्वर 'हाटकेश्वर' के दर्शन कर उनकी स्तुति में एक अष्टक का पाठ करता है।
नागराज के घर पर जाकर सिंधुराज उनकी ओर से प्रादरातिथ्य ग्रहण करता है । शशिप्रभा के भी दर्शन कर मुग्ध हो जाता
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