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विविध विषय
१८७ है। सके पश्चात् वह 'शशिप्रभा' की प्रणय-अंथि में दृढ़ता के साथ बंध जाता है। नागराज शंखपाल बहुत कुछ दहेज देकर भी अपनी नम्रता प्रदर्शित कर आदिकवि कपिल की परंपरा से प्राप्त एक शिवलिंग सिंधुराज को भेंट में देता है। सिंधुराज अपने सहायक विद्याधरों के साथ--और सहचरियों के साथ शशिप्रभा को भी लेकर अपनी नगरी के लिये बिदा होता है। वहाँ से वह उज्जैन आता है
बालातपच्छुरितहयेविटङ्कवर्ति पारावतातिमधुरध्वनितच्छलेन । सम्भाषणं विदधतीमिव पारमुक्तपुष्पाञ्जलिः स पुरमुजयिनी विवेश ॥१८॥ कान्तायशो भटयुतं कृशतामवाप्तास्तञ्चिन्तयैव सचिवास्तमथ प्रणेमुः। काकुत्स्थमाहतसुरारिमिवानुयान्तम् सौमित्रिणा जनकराजतनूजया च ॥
उज्जयिनी में प्रवेश करने के पश्चात् वह श्रीमहाकालेश्वर मंदिर में दर्शनार्थ जाता है
आनंदवाष्पसलिलादृशोऽर्धमार्ग, सम्भाष्य तान् स्मितमुखः सह तैर्जगाम । विद्याधरोरंगकराहतहेमघण्टाटङ्कारहारि भवनं त्रिपुरान्तकस्य ॥६॥ तस्मिंश्चराचरगुरोहरिणावचूलचुडामणेरपचितिं विधिवद्विधाय । साकं फणीन्द्रसुतयाऽम्बररोधि कम्बुतूर्यस्वनामि स च राजकुलं विवेश॥६॥
इसके अनंतर सिंधुराज ने धारानगरी में प्रवेश कर वहाँ नागलोक से लाए हुए शिवलिंग की प्रतिष्ठा की है।
नागलोक से साथ आए हुए लोगों को तथा शशिप्रभा की सहचरियों को सम्मानपूर्वक बिदा दी गई। अब 'सिंधुराज नवसाहसांक' ने पुन: यथापूर्व साम्राज्य-श्री को धारण किया।
"नीलच्त्रावतंसा भुजगपतिसुतापाण्डगण्डस्थलान्तः
कस्तूरीपङ्कपत्रव्यतिकरशबलव्यायतांसे सलीलम् । देवेनाथ स्वमन्त्रिप्रवरचिरश्ता साहसाङ्के न दीर्धे रोहज्याघातरेखे पुनरपि निदधे दोणि साम्राज्यलक्ष्मीः" ॥
सूर्यनारायण व्यास
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