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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सिंधुराज वि० सं० १०६६ से कुछ पूर्व सोलंकी चामुंडराज के साथ युद्ध कर वीर गति को प्राप्त हो गए। ई० स० की चौदहवीं सदी के जयसिंहदेव सूरि ने कुमारपाल-चरित के प्रथम सर्ग में लिखा है--
"रेजे चामुण्डराजोऽथ पश्चामुण्डवरोधुरः।
सिन्धुरेन्द्रमिवोन्मसं. सिन्धुराज मृधेऽवधीत् ॥ ३१ ॥ वाक्पतिराज मुंज के पश्चात् परिमल ( पद्मगुप्त ) कवि ने इसी सिंधुराज का आश्रय ग्रहण किया था । पद्मगुप्त धारा नगरी की राजसभा का राजप्रिय प्रधान पंडित था। इसके पिता का नाम मृगांकगुप्त था३ । राजाज्ञा से प्रेरित होकर ही सिंधुराज के अपर नाम 'नवसाहसांक' को लेकर उसने १८ सर्ग के एक परम मनोहर उत्कृष्ट काव्य की रचना की है। हम इस लेख में पाठकों को इसी काव्य का परिचय कराने जा रहे हैं। __ परिमल (पद्मगुप्त) कवि की यह काव्य-कृति बहुत सुंदर हुई है और संस्कृत साहित्य-रसिकों के आदर की वस्तु है। यह रचना बड़ी भावमयी है। काव्य का वर्ण्य विषय 'सिंधुराज' की प्रशंसा है। प्रालंकारिक रूप में एक ऐतिहासिक पुरुष (नायक) का, पाताल लोक की नागकन्या शशिप्रभा से, परिणय कराया गया है। हम ऊपर (१) "सूनुस्तस्य बभूव भूपतिलकश्चामुण्डराजाक्रमो
यद्गन्धद्विपदानगन्धपवनाघ्राणेन दूरादपि । विभ्रश्यन्मदगन्धभग्नकरिभिः श्रीसिन्धुराजस्तथा नष्टः क्षोणिपतियथास्य यशसा गंधोपि नि शितः ॥"
.-एपिग्राफिका इंडिका, भा० १, पृ० २१७ । (२) "दिवं यियासुर्मयि वाचि मुद्रा, श्रदत्त यां वाक्पतिराजदेवः ।। तत्यानुजन्मा कविषान्धवस्य भिनत्ति तां सम्प्रति सिन्धुराजः ॥
-नवसाहसांक-चरित, स. १, श्लो. ८ । (३) इतिहासज्ञों का मत है कि सिंधुराज पर्यंत राजधानी उज्जैन ही थी; भोज ने धारा नगरी पसंद की है। परंतु पनगुप्त ने अपने ग्रंथ में सिंधुराज को 'धारानगरीश' ही बतलाया है।
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