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विविध विषय इस कारण उसे राज्य छोड़कर जंगल में चला जाना पड़ा। इसके पश्चात् उसका क्या हुआ कुछ जान नहीं पड़ता।
ब्रह्मांड, वायु और मत्स्य पुराणों में यह कथा प्रायः समान रूप में पाई जाती है; इस कारण इसका सही होना बहुत कुछ संभव है।
मांडूक्य उपनिषद् और गौडपाद-अक्टूबर १९३३ के इंडियन ऐंटिक्वेरी में इस विषय का मि० ए० व्यंकट. सुब्बैया का एक लेख है। यह दस प्रधान उपनिषदों में से एक उपनिषद् है। इसमें केवल छोटे छोटे १२ वाक्य हैं : प्रथम ७ में इस उपनिषद् का विशेष कथन समाप्त हो जाता है और ये नृसिंह-पूर्वतापिनी (४,२), नृसिंह-उत्तरतापिनी (१), रामोत्तरतापिनी उपनिषदों में प्राय: बिना कुछ परिवर्तन के उद्धृत कर लिए गए हैं। इनका सारांश योगचूड़ामणि (७२ ) और नारदपरिव्राजक (७-३ ) उपनिषदों में भी दिया है। इन सूत्रों के ऊपर गौडपादाचार्य ने १२५ कारिकाओं में टीका लिखी है, जो पागम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण
और अलातशांति प्रकरण नाम के ४ प्रकरणों में विभाजित है । अद्वैतवाद में उपर्युक्त १२ वाक्य ही श्रुति माने गए हैं और २१५ कारिकाएँ गौडपादाचार्य की बनाई मानी गई हैं। गौडपादाचार्य को गोविंद भागवतपाद का गुरु और शंकराचार्य का दादागुरु मानते हैं। श्री मध्वाचार्य का द्वैत संप्रदाय प्रथम प्रकरण की कारिकाओं को भी श्रुति मानता है। लेखक यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि ये दोनों निश्चय गलत हैं और १२ वाक्य तथा २१५ कारि. काएँ दोनों गौडपादाचार्य की लिखी हैं। उसकी राय में शंकराचार्य का भी यही सिद्धांत है। शंकराचार्य ने इस उपनिषद् ( १२ वाक्य और २१५ कारिकाओं) का प्रमाण कहीं भी अति के रूप में नहीं दिया है। गौडपादाचार्य के शंकर के परमगुरु होने में
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