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इतिहास-प्रसिद्ध दुर्ग रणथंभौर का संक्षिप्त वर्णन
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कारण बूँदीवालों की स्त्रियाँ नौरोजे पर जाने तथा डोला दिए जाने आदि से बची रहीं । काशी की सूबेदारी राव सुर्जन को मिली, जहाँ उन्होंने अच्छे अच्छे धार्मिक कार्य किए तथा सुंदर महल और बाग भी बनवाया जो आज तक "हाड़ाओ का बाग" के नाम से प्रसिद्ध है । इस संधि-पत्र के अनुसार राव सुर्जनजी के वंश, जाति और धर्म की पूर्ण रक्षा रही । अकबर ने सब स्वीकार कर सुर्जनजी को रावराजा की पदवी प्रदान की । राव सुर्जनजी ने लोभवश किला दे दिया पर सामंतसिंह ने अकबर के दाँत खट्टे कर मरकर किला छोड़ा । इस प्रकार फिर यह प्राचीन प्रसिद्ध दुर्ग चौहानों के हाथ से निकलकर मुसलमानों के हाथ चला गया । संवत् १६७६ वि० में जहाँगीर इस किले की सैर करके खुश हुआ । संवत् १६८८ वि में यह दुर्ग राजा विट्ठलदास गौड़ को मिला, किंतु उससे औरंगजेब ने ले लिया ।
उन्होंने,
पर यह
संवत् १८११ वि० तक यह दुर्ग मुसलमानों के अधिकार में रहा । इस दुर्ग के अधीन ८३ महाल थे। कई एक रजवाड़ों का भी इससे संबंध था, जिनमें बूँदी, कोटा, शिवपुर आदि बड़ी बड़ी रियासतें भी थीं । संवत् १८१२ वि० में दिल्ली की शक्ति को घटाकर मरहठों ने राजपूताने में लूट-मार मचा रखी थी। अन्यान्य किलों की भाँति, इस किले को भी जा घेरा । किला साधारण तो था नहीं । दुर्गाध्यक्ष ने बड़ी वीरता से मरहठों का सामना किया और वह तीन वर्ष तक लगातार लड़ा। बार बार उसने दिल्ली से मदद माँगी पर वहाँ कौन सुनता था ? तब दुर्गाध्यक्ष ने बूँदी के महाराव राजा उम्मेदसिंहजी को लिखा पर वे उस समय अपने ही राज्य के उद्धार में लगे थे, दुर्गाध्यक्ष की बातों पर उन्होंने ध्यान न दिया । सामान रहा, बराबर मरहठों से लड़ता रहा ।
दुर्गाध्यक्ष के पास जब तक
संवत् १८१६ वि०
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