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इतिहास-प्रसिद्ध दुर्ग रणथंभौर का संक्षिप्त वर्णन १६५ था। चौहान लोग मालवा, गुजरात प्रादि देशों में इधर-उधर अपना ठिकाना जमाने लगे। हम्मीर का पुत्र रत्नसिंह पहले से मेवाड़ में था। उसका वंश वहाँ फैला। तैमूर के समय तक रणथंभौर साधारण हालत में पड़ा रहा । संवत् १५७३ तक मालवावालों के अधिकार में रहा और तब मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह के हाथ आया और विक्रमादित्य के समय तक मेवाड़वालों के अधिकार में रहा। संवत् १६०० विक्रमी में शेरशाह सूर के पुत्र आदिलखाँ को जागीर में दिया गया।
संवत् १६१५ तक इस किले पर मुसलमानों का अधिकार रहा। इसी समय में बूंदी के सामंतसिंह हाड़ा नामक एक सर्दार ने बेदला और कोठारिया ( ये मेवाड़ के १६ सर्दारों में से हैं ) के चौहानों की सहायता से मुसलमान किलेदार जुझारखाँ से, कुछ रुपये देकर, किला छीन लिया और बूंदी के अधिपति राव सुर्जनजी को सहायता के लिये बुलाया। थोड़े से वीर हाड़ाओं को लेकर सुर्जनजी वहाँ पहुँचे और मुसलमानों को वहाँ से निकाल अपना अधिकार कर लिया। ___ संवत् १६२४ वि० में अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। बूंदी का पदच्युत राव सुरवान शाही सेना को पट्टी देकर बूंदरी पर चढ़ा लाया। यहां राव सुर्जन के भाई रामसिंह थे। उन्होंने रात्रि के समय दो बार धावा मारकर शाही फौज भगा दी और तोपें छीन ली, लेकिन अपने भाई के पीछे बादशाह से बिगाड़ करना अच्छा न समझ तो लौटा दी। जब अकबर को यह मालूम हुआ तब उसका दाँत रणथंभौर पर लगा। चित्तौड़ विजय कर उसने उसी संवत् में रणथंभौर पर चढ़ाई की। राजा मान भी साथ थे।
भारत के राजसिंहासन पर विराजमान होकर मुगल-कुलतिलक अकबर की इस प्राचीन और अभेद्य गढ़ रणथंभौर पर अधि.
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