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इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग रणथंभौर का संक्षिप्त वर्णन
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पर पहरा रहने के कारण किले में जंगली जानवर नहीं हैं दूसरे दो परकोटों के बीच अनेक प्रकार के जंगली जानवर बहुतायत से झाड़ियों में रहते हैं । किले से तीन कोस के फासले पर दक्खिन और एक छोटी सी पहाड़ी पर मामा-भानजे की कंबरें हैं । संभव है उस पर से किले को विजय करने का प्रयत्न किया गया हो। इस किले की मजबूती इसके देखने ही से मालूम हो सकती है । संसार के किसी देश में इस प्रकार का कोई किला शायद ही हो । यदि इसको सजाया जाय तो यह एक अपूर्व दुर्गम गढ़ बन जाय ।
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यह दुर्गम दुर्ग किसके समय में, किसने बनवाया, इसका अभी तक पता नहीं ! पर यह दीर्घ काल से चौहानों के अधीन चला प्राता था और अंत में चौहानों के हाथ से ही मुसलमानों के हाथ में गया । संभव है कि यह किला चौहानों के द्वारा ही बना हो, क्योंकि राजपूताने के अनेक मजबूत किले चौहानों के द्वारा ही बनाए गए थे, जैसे अजमेर का तारागढ़, नाडोल का गढ़, घोसा का मांडलगढ़, मोरा का गढ़, बूँदी का तारागढ़, गागरोय का गढ़, इंदर गढ़, छापुर का गढ़, ये सब चौहानों के बनाए हुए हैं । अतः रणथंभौर भी चौहानों का बनाया हुआ हो तो आश्चर्य क्या १ ऐसी जनश्रुति है कि इस विकट वन और दुर्गम पहाड़ियों में एक पद्मला नाम का तालाब था ( जो अब भी वही नाम धारण किए है ) । उसके किनारे पद्म ऋषि नाम के कोई महात्मा अपना नित्यकर्म कर रहे थे उस समय में दो राजकुमार, जिनमें एक का नाम जयत और दूसरे का रणधीर था, सूअर के पीछे घोड़ा दौड़ाते हुए इस वन में चले आए ! सूर भयभीत हो पद्मला तालाब में
( १ ) अलवर गढ़ भी मैनपुरी के इतिहास में चौहान श्रन्दनदेव का बनाया हुआ लिखा है । पर एक बढ़वे की पुस्तक में अलवर का गढ़ श्रमेर के राजा कांकिलदेव के दूसरे पुत्र अलगरायजी का बनाया हुआ लिखा है ।
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