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नागरीप्रचारिणी पत्रिका निवास के योग्य माने जाते थे जहाँ पर स्त्रियों का समुचित सम्मान होता था। समाज में यह विचार प्रचलित था कि जिस कुल में खियों का आदर होता है उसी में उत्तम संतान की उत्पत्ति हो सकती है। जिस वंश में देवहूति, इला, शतरूपा, ममता, उशिज
और लोपामुद्रा के सदृश माताओं का सम्मान तथा पूजन होता था उसी में कणाद, पुरूरवा, उत्तानपाद, दीर्घतमा, काक्षीवान् तथा
दस्यु जैसे चमत्कारी बालकों की उत्पत्ति होती थी। तभी तो शाखों ने माता, पिता तथा गुरु में माता को प्रथम प्राचार्य की पदवी दी है। संपूर्ण गृह-कार्यों का संपादन तथा संचालन तो पत्नी करती ही थी किंतु इसके साथ साथ वह अनेक अन्य कार्यों में भी पूरा भाग लेती थी। प्रत्येक कार्य में पत्नी की सम्मति लेना पति का कर्तव्य था, यहाँ तक कि संधि-संदेश लेकर भगवान कृष्ण जब धृतराष्ट्र के पास गए तब महारानी गांधारी की उपस्थिति संधि-परिषद् में प्रावश्यक समझो गई३ । श्रीकृष्ण भी द्रौपदी का संदेश कभी नहीं भूले। भीमसेन आदि पाँचों पांडव द्रौपदी के अपमान का कभी विस्मरण नहीं कर सके। वे सदा इस ताप से जलते रहे। न केवल इसी देश में वरन् पश्चिमीय देशों तक में अधिकतर युद्ध त्रियों की सम्मानरक्षा के लिये ही हुए हैं। पत्नी, माता तथा भगिनी की रक्षा के लिये हंसते हँसते प्राण न्योछावर करना साधारण बात समझो जाती थी। ग्रीस का सबसे बड़ा युद्ध हेलेन के सम्मान तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिये और भारतवर्ष के दो महासमर सीता तथा द्रौपदी के अपमान का बदला लेने के लिये हुए थे। पति का धर्म है कि वह पत्नी को अपने भरण-पोषण आदि की चिंता से सदैव
(१) मनुस्मृति, ३-५६, ५७ । (२) बृहदारण्यक उपनिषद्, ४-१ । (३) महाभारत-उद्योगपर्व, १२६ ।
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