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नागरीप्रचारिणी पत्रिका तो उस समय हुआ जब उसकी यौवनावस्था लगभग व्यतात हो चुकी थी।
विवाह के पूर्व कन्या की बुद्धि परिपक्क हो जाती थी। उसमें अपने हिताहित के विवेक की शक्ति होती थी। उसमें जीवन की इच्छाओं तथा अभिलाषाओं का विकास हो जाता था। वह अपने जीवन को किस प्रकार व्यतीत करेगी, इसकी उमंगे उसके हृदय में होती थीं। जीवन में उसे किस प्रकार के साथी तथा संरक्षक की आवश्यकता होगी, इसका निर्णय वह किसी अंश तक स्वयं कर सकती थी। इसलिए योग्य तथा अयोग्य वर का निर्णय करने का उसे पूर्ण अधिकार था। वह स्वयं अपने लिये वर चुनतो थी पर इसका सारा उत्तरदायित्व पिता पर होता था। वर की खोज का पूरा प्रबंध पिता करता था। न तो योरप की युवतियों की भाँति कन्याएँ वर-प्राप्ति के लिये मारी मारी फिरती थों और न उनके वर की खोज किया करते थे आजकल के नाई और पुरोहित। उन्हें न तो अनाश्रित छोड़ा जाता था और न उनकी अभिलाषाओं तथा आकांक्षाओं की ही अवहेलना की जाती थी। इस समय योरप में एक और 'अति' हो रही है तो भारत में दूसरी ओर। इन दोनों का सुंदर तथा सुमधुर समन्वय किया था प्राचीन भारत ने, जहाँ पर कन्याओं के विवाह का पूर्ण उत्तर. दायित्व पिता पर होते हुए भी कन्या वर का चयन स्वयं करती थी। स्वयंवर प्राचीन आर्यों की बड़ी अद्भुत संस्था थी। इसका सब प्रबंध तो पिता करता था कितु वर का चयन कन्या स्वयं करतो थी। कभी कभी पिता की ओर से ऐसी शर्त रख दी जाती थी जिसको पूरी करनेवाले को कन्या वर रूप से स्वीकार कर लिया करतो थो। यह रखते समय भी पिता पुत्री की आकांक्षाओं का पूर्ण ध्यान रखता था। क्षत्रिय अपनी पुत्री का वीर पुरुष के साथ विवाह करता
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