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प्राचीन भारत में खियाँ माता-पिता तथा भ्राता आदि तो पुत्री को सुखी बनाना अपना कर्तव्य समझते ही थे कितु राजा का भी कन्याओं के प्रति बड़ा भारी उत्तरदायित्व था। उनके रक्षण, भरण-पोषण तथा संप्रदान का राजा पूरा निरीक्षण करते थे और यह उनकी दिनचर्या का एक भाग था' परिवार, समाज और राजा तीनों का कर्तव्य था कि कन्याओं की सब प्रकार से यथोचित रक्षा करें। __यद्यपि पुत्री का अनुकूल वर से विवाह करना पिता का कर्तव्य था और वर की खोज आदि का पूरा उत्तरदायित्व उसी पर था तथापि पिता पुत्री की इच्छा का भी पूर्ण ध्यान रखता था, क्योंकि कन्याओं का विवाह प्रायः उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कर चुकने पर किया जाता था। सोलह वर्ष से पूर्व प्रायः कन्याओं का विवाह न किया जाता था। पितृ-गृह में कन्या जब विवाह के योग्य हो जाती थी और अपने हिताहित का निर्णय स्वयं कर सकती थी तब पिता उसका अनुकूल वर के साथ विवाह करता थारे । ब्रह्मचर्य से ही कन्या समान गुण, कर्म तथा स्वभाव से युक्त सुयोग्य वर को प्राप्त करती थी। अनेक वैवाहिक मंत्र भी इसी का प्रतिपादन करते हैं । अश्मारोहण के समय पति जो मंत्र पढ़ता है उसका भाव तथा अन्य अनेक मंत्रों का सारांश एक युवती वधू ही समझ सकती है। सूर्यपुत्रो सूर्या का विवाह उस के पूर्ण यौवन प्राप्त कर लेने पर हुआ था और घोषा का गृहस्थाश्रम में प्रवेश
(१) मनुस्मृति, ६-१५२ । (२) ऋगवेद, ८५-२१, २२ ।
(३) अथर्ववेद, ३-१८, १-१९७-७, २-१ -७, २०-३६-३, १.-४०-५।
(४) तैत्तिरीय एकाग्निकांडिका अ० १, खः ५, सू०५ : (१) वही, १-४-४,५ । (६) ऋग्वेद, १०-८५-६ ।
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