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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
पुत्री के 'पुत्रिका' बन जाने के पश्चात् -- अर्थात् उसके संपत्ति की अधिकारिणी बन जाने के उपरांत - पुत्रोत्पत्ति होती थी तो पुत्र तथा पुत्री दोनों का अधिकार समान होता था | मातृ-धन की अधिकारियो पुत्री होती थी । उसे भगिनी के साथ भाई नहीं बँटा सकता था? । दौहित्र तथा पौत्र में किसी प्रकार का भेद नहीं माना जाता था संपत्ति का अधिकारी अवस्था - विशेष में दौहित्र भी हो सकता था }
कन्या को कभी अरक्षित तथा अनाश्रित नहीं छोड़ा जाता था । यदि कन्या के विवाह से पूर्व ही पिता की मृत्यु हो जाय तो विवाह का सारा भार तथा कन्या के भावी जीवन को सुखी बनाने का उत्तरदायित्व पितामह, भ्राता और माता पर होता था । यदि इनमें से कोई भी न हो तो वंश तथा जाति के अन्य लोग उसका अनुकूल वर के साथ विवाह करना अपना कर्त्तव्य समझते थे !
जो पिता अपनी पुत्री का समय पर विवाह नहीं करते थे वे पापी समझे जाते थे, समाज में उनकी बड़ी निंदा होती थी और लोगों का विश्वास था कि देवता उनसे प्रसन्न नहीं होते । इसी प्रकार पिता के अभाव में पितामह, माता, भ्राता तथा वंश और जाति के अन्य लोग कन्या के प्रति यदि अपना कर्त्तव्य पालन नहीं करते थे और युवती कन्या को निराश्रित छोड़ देते थे तो वे महापापी समझे जाते थे ।
( १ ) मनुस्मृति, ६–१३४ । ( २ ) वही, ६-१३१ ।
( ३ ) वही, ६- १३६, ३-१३२ ।
( ४ ) महाभारत वनपर्व, अ० २३, १२२२-१२२३ । मनुस्मृति, ३-४ । ( * ) याश्यवल्क्य श्राचार, विवाह - प्रकरण । नारद-स्मृति, १२-२५, २६,
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ऋग्वेद १०-२७-१२ ।
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