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प्राचीन भारत में स्त्रियाँ
१३६ कि लोग नन्हीं नन्हीं बच्चियों का विवाह करने लगे। इसी अत्यधिक चिंता ने यह रूप धारण कर लिया ।
जैसे-तैसे विवाह कर देना ही पिता का कर्तव्य नहीं था किंतु कन्या के वैवाहिक जीवन को सुखी बनाना उसका पूर्ण कर्त्तव्य था । यदि समान गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त योग्य वर नहीं मिलता था तो कन्या आजन्म ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करके पितृ-गृह में रहती थो । पिता अपनी पुत्रो को आजन्म कुमारी रखना तो स्वीकार कर लेते थे किंतु अयोग्य वर से उसका विवाह कभी न करते थे। इसे वे महापातक समझते थे । ____ कन्या के भरण-पोषण का पूर्ण प्रबंध पिता तथा भाई करते थे। याँ तो पुत्रो को पिता की संपत्ति लेने की कभी अावश्यकता ही न पड़ती थी क्योंकि उसके भरण-पोषण का साराभार पिता अथवा भ्राता पर होता था । पुत्रो तथा भगिनी का मान तथा प्रतिष्ठा करना और उनको अपने लिये किसी प्रकार की चिता न करने देना पिता तथा भ्राता अपना मुख्य कर्त्तव्य तथा परम धर्म समझते थे। बहन भाई से इस विषय में कभी ईर्ष्या नहीं करती थी। इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। वह भाई को समृद्धिशाली देखकर प्रसन्न होती थी। भाई जितना ही समृद्धिशाली तथा संपत्तिशाली होता था उतना ही अधिक वह अपने धन से बहन को सुखी रखता था। इसलिये बहन के मन में भाई के साथ पिता की संपत्ति बंटाने की अभिलाषा कभी न होती थी। किंतु जो कन्या आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करती थी वह, कानून की दृष्टि से, पिता की संपत्ति की अधिकारिणी अवश्य थी। पुत्र के अभाव में पुत्री को पैतृक संपत्ति मिलती थी। ऐसी स्थिति में इसकी आवश्यकता भो थी । यदि
(१) मनुस्मृति, ६-८६ । ऋगवेद, ३-५५-१६ । (२) मनुस्मृति, 8-१३०। अग्वेद, २-१७-७ ।
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