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प्राचीन भारत में स्त्रियाँ
१३७ थे। और विदुला रणांगण से भागे हुए अपने पुत्र में पुन: वीरता का संचार नहीं कर सकती थी । ऋग्वेद में अनेक स्त्रीयोद्धाओं का वर्णन है। इससे यह भली भाँति सिद्ध होता है कि युद्ध-कौशल भी स्त्रियों के लिये अनुपयुक्त न समझा जाता था ।
अनेक खियाँ मल्ल-विद्या में भी प्रवीण होती थीं। पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी में यद्यपि आर्यों का यथेष्ठ पतन हो गया था तो भी स्त्रियों की उन्नति के द्वार बंद न हो पाए थे। विदेशियों के लेखों से विदित होता है कि विजयनगर राज्य में स्त्रियाँ अनेक विभागों में काम करती थीं। अनेक स्त्रिया युद्ध-कुशल और मल्ल-विद्या-विशारद थों। वे राज्य के भिन्न भिन्न पदों पर नियुक्त थी, राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखती थीं। इस अवनतिकाल में स्त्रियों का इन दायित्व पूर्ण पदों पर नौकर होना यह सिद्ध करता है कि उस समय भी स्त्रियों की शिक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था।
पिता यह तो चाहता ही था कि पुत्री को योग्य शिक्षा मित्ने पर यहीं उसके कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती थी। जब कन्या पूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कर चुकती थी और आवश्यक शिक्षा प्राप्त कर लेती थी तब पिता के दूसरे कर्तव्य का प्रारंभ होता था और यह था उसके लिये अनुकूल वर की खोज। पुत्री का विवाह करने के लिये पिता सदैव चिंतित रहता था। पुत्रो के भावी जीवन को सुखमय, धर्ममय, पुण्यमय तथा समृद्धिमय बनाना पिता
(१) महाभारत-उद्योगपर्व, १२६-१-१५ । (२) वही, १३३-१-४५ । (३) ऋगवेद, १-१७-११ । १-११४-१८। १०- ३६ -८ ।
५-३० - १ । १०-१-१०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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